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Monday 27 March 2017

हिस्से की जिंदगी

बहुत ही करीब से गुजर रही थी जिंदगी,
कितना कोलाहल था उस पल में,
मगर बेखबर हर कोलाहल से था वो पथिक,
धुन बस एक ही ! अपने मंजिल तक पहुचने की!

मुड़-मुड़कर उसे देखती रही थी जिन्दगी,
पर उसे साँस लेने तक की फुर्सत नहीं,
अनथक कदम अग्रसर थे बस उस मंजिल की ओर,
पल-पल जिंदगी से दूर होते गए उसके कदम।

निराश हतप्रभ अब हो चली थी जिंदगी,
कचनार हो गई हो जैसे सुगंधहीन,
गुलमोहर की कली ज्युँ सूखकर हुई हो कांतिहीन,
प्रगति के पथ पर जिन्दगी से दूर था वो पथिक।

मंजिलों पर वो अब तलाशता था जिंदगी,
हाथ आई सूखी हुई सी कुछ कली,
रंगहीन गंधहीन अध-खिली सहमी बिखरी डरी सी,
छलक पड़े थे नैनों में दो बूँद नीर की भटकी हुई।

बहुत ही करीब से गुजर चुकी थी उसके हिस्से की जिंदगी।

Saturday 15 October 2016

इक मोड़

अजब सी इक मोड़ पर रुकी है जिंदगानी,
न रास्तों का ठिकाना, न खत्म हो रही है कहानी।

लिए जा रहा किधर हमें ये मोड़ जिन्दगी के,
है घुप्प सा अंधेरा, लुट चुके हैं उजाले रौशनी के,
ओझल हुई है अब मंजिलें चाहतों की नजर से,
उलझी सी ये जिन्दगानी हालातों में जंजीर के।

अवरुद्ध हैं इस मोड़ पर हर रास्ते जिन्दगी के,
जैसे कतरे हों पर किसी ने हर ख्वाब और खुशी के,
ताले जड़ दिए हों किसी ने बुद्धि और विवेक पे,
नवीनता जिन्दगी की खो रही अंधेरी सी सुरंग में।

अजब सी है ये मोड़.....इस जिंदगी की रास्तों के.....

पर कहानी जिन्दगी की खत्म नहीं इस मोड़ पे,
बुनियाद हौसलों की रखनी है इक नई, इस मोड़ पे,
ऊँची उड़ान जिंदगी की भरनी हमें है विवेक से,
आयाम ऊंचाईयों की नई मिलेंगी हमें इसी मोड़ से।

यूँ ही मिल जाती नही सफलता सरल रास्तों पे,
शिखर चूमने के ये रास्ते, हैं गुजरते कई गहराईयों से,
चीरकर पत्थरों का सीना बहती है धार नदियों के,
इस मोड़ से मिलेगी, इक नई शुरुआत कहानियों के।

अजब सी इस मोड़ पे, नई मोड़ है जिन्दगानियों के.....

Wednesday 27 April 2016

व्यस्त जिन्दगानी

व्यस्त लम्हे, हकीकत हैं ये जीवन के,
पल भर को फुर्सत नही साँसें लेने की चैन के,
रफ्तार से घूम़ती हैं, ये पहिए जिन्दगी के,
जरूरतों के आगे पिसती है, जरूरत जिन्दगानी के।

कब रुके हम, कब साँसों को झकझोरा,
जाने किन राहों पर हमने खुद को ही रख छोड़ा,
खुद से ही पूछते है हम कभी खुद का पता,
व्यस्तताओं के आगे विवश, हमारी आवश्यकता।

शून्य संग्याहीन हो चुके मन के भाव सारे,
निर्णय के दोराहों पर जाने कितने ही पल गुजारे,
हारी है चाह मन की असंख्य बार जीवन में,
भौतिकता के आगे हरबार टूटे हैं घर कल्पनाओं के।

कोमलता हंदय की दबी व्यस्तताओं में,
खूबसूरती लम्हो की रहती अनदेखी वर्जनाओं में,
जज्बातों के घरौंदे जलते जीवन की भट्ठी में,
एहसासों के राख पर ही महल बनते जिन्दगानी के।

तन्द्रा भंग हुई अब व्यस्त लम्हों की मजार पर,
कशिश आह भरी दिल में, रंजिश उन गुजरे लम्हों पर
आँसू छलके हैं नैनों में, हृदय हो रहा बेजार पर,
गुजरे वक्त के आगे विवश, बैठा जज्बातो के ढ़ेर पर।

Saturday 12 March 2016

तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ

तुम एक बार जो रूठो, तो मैं दस बार मनाऊँ,
आपकी एक हसीं के लिए मैं तो जान लुटाऊँ,

रूठकर आपका जाना बड़ी प्यारी सी अदा है,
मानकर लौट भी जाना, उफ ये क्या माजरा है,

इन अदाओं में आपका प्यार छलक जाता है,
छलके इन्ही लम्हों में मेरा वक्त गुजर जाता है,

तरकीब नई फिर आपको सताने की ढ़ूंढ़ता हूँ,
रूठ जाने की नई ताक दिल में लिए फिरता हूँ,

मनभ्रमर रस पी लेता रूठे प्रीतम को मनाने में,
यूँ ही गुजर जाती ये जिन्दगानी रूठने मनाने में।

Monday 8 February 2016

तन्हाई की आवाज

सुन लो आवाज तन्हाईयों की,
बज रही दिल में जो शहनाईयों सी,
नग्मा ए गम से सिहर उठी हैं वादियाँ भी,
उन सदाओं मे गुम हुई मेरी आवाज कहीं।

तन्हा तन्हा सफर जिन्दगानी की,
मौजे तन्हाई में डूबी है ये कहानी भी,
पतझड़ की बयार से बिखरे हैं पत्ते सभी,
आँसुओं मे डूब गई हैं शाख ए गुल भी कहीं।

Friday 29 January 2016

पटकथा

किसने लिखी है पटकथा जिन्दगानी की,
ये कैसी है कथा अन्त जिसका पता नहीं,
दौड़ते हैं सब यहाँ मंजिलों के निशाँ नहीं,
पलकें हैं खुली हुई पर दृष्टि का पता नहीं।

एक दूसरे के ही हम दुश्मन सभी बने हुए,
लड़ रहे खुद से ही निज स्वार्थ में घिरे हुए,
कथा है ये कौन सी हम अंजान इससे हुए,
जिसने रची पटकथा, अन्तर्धान स्वयं हुए।