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Saturday 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 15 July 2022

भूल जाता हूं


झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

गहराता वो क्षितिज, हर क्षण बुलाता है उधर,
खींच कर, जरा सा आंचल में भींच कर,
कर जाता है, सराबोर,
उड़ चलते हैं, मन के सारे उत्श्रृंखल पंछी,
गगन के सहारे, क्षितिज के किनारे,
छोड़ कर, मुझको,
ओढ़ कर, वो ही रुपहला सा आंगन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

वो टूटा सा बादल, विस्तृत नीला सा आंचल,
सिमटे पलों में, अजब सी, एक हलचल,
चहुं ओर, फैली दिशाएं,
टोक कर, मुझको, उधर ही बुलाए,
पाकर, रंगी इशारे,
देख कर, वादियों का पिघलता दामन,
भूल जाता हूं खुद को!

झूल कर, कभी स्मृतियों के पवन संग,
भूल जाता हूं खुद को!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 6 July 2021

ऊहापोह

स्मृति के, इस गहराते पटल पर,
अंकित, हो चले वो भी!

यूँ, आसान नहीं, इन्हें सहेजना,
मनचाहे रंगों को, अनचाहे रंगों संग सीना,
यूँ, अन्तःद्वन्दों से, घिर कर,
स्मृतियों संग, जीना!

पर, वक्त के, धुँधलाते मंज़र पर,
अमिट, हो चले वो भी!

यूँ, जीवन के इस ऊहापोह में,
रिक्त रहे, कितनी ही, स्मृतियों के दामन,
बिखरी, कितनी ही स्मृतियाँ,
सँवर जाते वो काश!

जीवन के, इस गहराते पथ पर,
संचित, हो चले वो भी!

यूँ कल, विखंडित होंगे, ये पल,
फिर भी, स्मृतियाँ, खटखटाएंगी साँकल,
देंगी, जीवन्त सा, एहसास,
अनुभूति भरे, पल!

सांध्य प्रहर, गहराते क्षितिज पर,
शामिल, हो चले वो भी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 13 June 2021

झिझक

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, दुविधाओं के ये, बादल न होते!
इन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

किस मोड़, जाने मुड़ गईं राहें!
विवश, न जाने, किस ओर, हम चले!
दरमियाँ, वक्त के निशान, फासले कम न थे,
उस धुँध में, कहाँ, तुझे ढूंढ़ते!

तुम तक, ये शायद, पहुँच जाएँ!
शब्द में पिरोई, झिझकती संवेदनाएँ,
कह जाएँ वो, जो न कह सके कहते-कहते!
रोक लें तुझे, यूँ चलते-चलते!

ओ मेरी, स्मृति के सुमधुर क्षण!
बे-झिझक खनक, सुरीली याद संग,
स्मृतियों के, इन दायरों में, आ रोक ले उन्हें,
यूँ न खो जाने दे, धुँध में उन्हें!

झिझक, संकोच, हिचकिचाहट!
काश, झिझक के, दुरूह पल न होते,
उन्हीं स्मृति के दायरों में, हम तुम्हें रोक लेते,
यूँ न, धुँध में, तुम कहीं खोते!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday 3 December 2020

विस्मृति

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

देखो ना! आज फिर, सजल हैं नैन तेरे,
बहते समीर संग, उड़ चले हैं, गेसूओं के घेरे,
चुप-चुप से हो, पर कंपकपाए से हैं अधर,
मौन हो जितने, हो उतने ही मुखर,
कितनी बातें, कह गए हो, कुछ कहे बिन,
चाहता हूँ कि अब रुक भी जाओ तुम!
रोकता हूँ कि अब न जाओ तुम!
विस्मृति के, इस, सूने से विस्तार में,
कहीं दूर, खो न जाओ तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

पर, तुम्हारी ही स्मृति, ले आती हैं तुम्हें,
दो नैन चंचल, फिर से, रिझाने आती हैं हमें,
खिल आते हो, कोई, अमर बेल बन कर,
बना लेते हो अपना, पास रहकर,
फिर, हो जाते हो धूमिल, कुछ कहे बिन,
उमर आते हो कभी, उन घटाओं संग,
सांझ की, धूमिल सी छटाओं संग,
विस्मृति के, उसी, सूने से विस्तार में,
वापस, सिमट जाते हो तुम!
रोके, रुकते हो कहाँ तुम!

नहीं हो तुम कहीं, पर अभी तो, तुम थे यहीं!
स्मृतियाँ, बार-बार ले आती हैं तुम्हें,
और, मूर्त हो उठते हो तुम।

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Monday 30 December 2019

स्मृति

सघन हो चले कोहरे, दिन धुँध में ढ़ला,
चादर ओढ़े पलकें मूंदे, वो पल यूँ ही बीत चला,
बनी इक स्मृति, सब अतीत बन चला!

कितने, पागल थे हम,
समझ बैठे थे, वक्त को अपना हमदम,
छलती वो चली, रफ्तार में ढ़ली,
रहे, एकाकी से हम!
टूटा इक दर्पण,
वो टुकड़े, संजोए या जोड़े कौन भला!

कल भी है, ये जीवन,
पर दे जाएंगे गम, स्मृति के वो दो क्षण,
श्वेत उजाले, लेकर आएंगी यादें,
बिखरे से, होंगे हम!
सूना सा आंगण,
धुंधली सी स्मृतियाँ, जोहे कौन भला!

छूट चले हैं सारे, वो कल के गलियारे,
विस्मृत करते, वो क्षण, वो दो पल, प्यारे-प्यारे,
सब कुछ है अब, कुछ धुंधला-धुंधला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 4 December 2018

बीता कौन, वर्ष या तुम

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

कुछ पल मेरे दामन से छीनकर,
स्मृतियों की कितनी ही मिश्रित सौगातें देकर,
समय से आँख मिचौली करता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
एक यक्ष प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या बीता है कोई सुंदर सा स्वप्न,
या स्थायित्व का भास देता, कोई प्रशस्त भ्रम,
देकर किसी छाया सी शीतलता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनसुलझे प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या यथार्थ से सुंदर था वो भ्रम,
या अंधे हो चले थे, उस माधूर्य सौन्दर्य में हम,
यूँ ही चलते आहिस्ता-आहिस्ता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
क्रमबद्ध ये प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या प्रकृति फिर लेगी पुनर्जन्म,
या बदलेंगे, रात के अवसाद और दिन के गम,
यूँ ही पुकार कर अलविदा कहता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनबुझ से प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

फिर सोचता हूँ ....
क्रम बद्ध है - पहले आना, फिर जाना,
फिर से लौट आने के लिये .....
कुदरत ने दिया, आने जाने का ये सिलसिला,
ये पुनर्जन्म, इक चक्र है प्रकृति का,
अवसाद क्या जो रात हुई, विषाद क्या जो दिन ढला?

गर मानो तो....
बड़ी ही बेरहम, खुदगर्ज,चालबाज़ है ये ज़िदंगी,
भूल जाती है बड़ी आसानी से,
पुराने अहसासों, रिश्तों और किये वादों को,
निरन्तर बढ़ती चली जाती है आगे..
यूँ बीत चुका, और एक वर्ष....
शायद, कुछ वरक हमारे ही उतारकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

Tuesday 29 November 2016

मेरी स्मृतियाँ

अविस्मरणीय सी कुछ स्मृतियाँ......
या शीतल सुखदायी, या हों अति-दुखदायी,
अविस्मृत,अक्षुण्ण अनंत काल तक रवाँ,
बिसारे बिसरती है ये कहाँ?

अंश कुछ स्मृतियों के रहते हैं बाकि......
या मीठी हो ये स्मृतियाँ, या हों ये खट्टी!
स्मृति कुछ ऐसी ही हूँ मैं भी,
है बहुत मुश्किल भुला देना, यूँ ही मुझको भी!

माना, पत्थर सी शक्ल है हृदय की तेरी,
पर कहीं शेष रह न गई हों यादें मेरी?
टटोल लेना अपनी हृदय को तुम.....
निशान मेरी स्मृति के तुम पाओगे वहाँ भी!

आड़ी-टेढ़ी लकीरों सी पत्तों पर अंकित,
ये पल पल सूख सूख गहराएँगी होकर अमिट,
मानस पटल जब कुरेदोगे तुम ....
उभर आएँगी दबी सी मासूम स्मृतियाँ मेरी!

अक्षुण्ण हूँ हर पल तेरे मन में मैं,
अभिन्न तुझसे हूँ, तेरी यादों की तरंग में हूँ मैं,
साँस -साँस जीता हूँ मैं तुझमें....
झुठला ना पाओगे, स्मृति बिसार न पाओगे मेरी!

Sunday 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Thursday 3 March 2016

ध्रुव सा यह स्मृति क्षण

ढ़लता सांध्य गगन सा जीवन!

क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन,
भीनी सांध्य का सुनहला पन,
संध्या का नभ से मूक मिलन,
यह अश्रुमती हँसती चितवन!

भर लाता ये सासों का समीर,
जग से स्मृति के सुगन्ध धीर,
सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर,
रोमों में पुलकित  कैरव-वन !

आदि-अन्त दोनों अब  मिलते,
रजनी दिन परिणय से खिलते,
आँसू हिम के सम कण ढ़लते,
ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!

Sunday 14 February 2016

"अविनाशी बंधन"

(पूजनीय नाना नानी...की मोहक स्मृति में समर्पित)

स्मृति पटल पर अंकित वो बनकर एहसास,
अविनाशी मानस पटल मे जो, वो अविनाश,
विनाश न हो जग में जिसका, वो अविनाश,
बांधता "अविनाशी बंधन" में, वो अविनाश!

अभिमान वो हमारा उनसे कुल की पहचान,
अधिष्ठाता मर्यादा का, सत्कर्मो की वो खान,
निष्ठाकर्म, लग्नकर्म, अनुशासन का वो प्रेमी,
वो अविनाश, हम सब की आन, बान, शान।

कितने ही दूरदूर हों इनकी लड़ियों के मोती,
कसक एक दूजे की पल पल दिल में बढ़ती,
शरुआत हर सुबह उनकी यादों से ही होती,
उनकी स्मृति की क्षणों के संग शाम बीतती।

प्रार्थना करूँ हर पल उस अविनाशी ईश्वर से,
बढ़ता रहे कुलवृक्ष निकलती रहे नई कोपलें,
निरंतर बढ़ती रहे मानमर्यादा कुल की हमसे,
गौरवांवित हों हम महिमा-मंडित अविनाश।

Sunday 7 February 2016

स्मृति आभार

यादों की धुँधली रेखायें मन में,
चमकती बिजली सी काले घन में,
उर मानस आह्लादित कम्पन में,
जीवन डूब रहा धीमी स्पन्दन में।

संगीत लहरी सी शिशिर-निशा में,
स्मृति लय जीवन की हर दिशा में,
प्रात जीवन की चाहे फिर संध्या में,
अन्तहीन मधुस्मृति लय जीवन में।

मन अधीर विस्मृति के प्रांगण मे,
प्राण पुलकित क्षणों के स्पंदन में,
जीवन सौन्दर्य प्रतिपल हर क्षण में,
उन स्मृतियों का आभार जीवन में!

Friday 29 January 2016

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

मैं प्रेमी जीवन के स्वर्गिक स्पर्शो का, 
मै अनुरागी जीवन के हर्ष विमर्शों का,
मैं प्रेमी विद्युत सम मधुर स्मृतियों का।

शीतल उज्जवल अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

उज्जवलता दूँ मैं जीवन भर जलकर,
निश्चल बस जाऊँ हृदय संग चलकर,
अंबर की धारा से उतर आऊँ भू पर।

महत् कर्म मधुरगंध छू जाते अंतर के स्वर!

उच्च उड़ान भर लूँ मैं महत् कर्म कर,
त्याग दूँ जीवन के चमकीले आडंबर,
पी जाऊँ मधुरगंध साँसों में घोल कर।

मधुर स्मृति स्पर्श अनुराग छू जाते अंतर के स्वर!

Wednesday 27 January 2016

स्वप्न स्मृति

स्वप्नों की क्षणिक आभा,
विस्मृत होती मानस पटल पे,
अंकित कर जाते कितने ही,
स्मृतियों की धुँधली रेखायें इनमें।

स्वर लहर मधुर स्वप्नों की,
नित अटखेलियाँ करती तट निद्रा पर,
सुसुप्त मन हिलकोर जाती,
खीच जाती स्मृतियों की रेखायें इनमे।

ओ स्वप्न वीणा के संगीत,
नित छेड़ते क्युँ तुम निद्रा के तार,
छेड़ते धुन मधु स्मृतियों की,
बनती स्मृति की कई श्रृंखलाएं इनमें।

प्रभात कोहरे में मिट जाती,
स्वप्न छाया का विस्मृत कारागार,
रह जाती क्षणिक स्मृति शेष सी,
विस्तृत स्मृतियों की लघु रेखाएँ इनमे।

Tuesday 29 December 2015

रहने दो तुम मत दो आस

रहने दो तुम.....!
अब मत करो बात।
भूल जाओ,
अब मत दो आस।
तुम्हारे होंगे असंखय दोस्त,
मिटती होगी जिनसे
तेरी प्यास,
मेरी तो बस एक ही आस,
ला सकता था जो मधुमास,
स्मृति से तेरे हुआ मैं विस्मृत,
बस अब तो,
छोड़ चला हूँ आस।
न मिट सकेगी अब,
इस मन की प्यास।
रहने दो तुम....!
भूल जाओ, मत दो आस,
रहने दो तुम.....!
मत करो बात।
गुजरा हुआ वक्त हूँ मैं,
लौट नही फिर आउँगा,
यादों मे रह जाऊँगा साथ,
रहने दो तुम.....!

Friday 25 December 2015

क्षण-क्षण मधु-स्मृतियाँ

धुँधली रेखायें, खोई मधु-स्मृतियों के क्षण की,
चमक उठें हैं फिर, विस्मृतियों के काले घन में,

घनघोर झंझावात सी उठती विस्मृतियों की,
प्रलय उन्माद लिए, उर मानस कम्पन में,

जाग उठी नींद असंख्य सोए क्षणों की,
हृदय प्राण डूब रहे, अब धीमी स्पन्दन में,

गहरी शिशिर-निशा में गूंजा जीवन का संगीत,
जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में,

जीवन पार मृत्यु रेखा निश्चित और अटल सी,
प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे,

बीते क्षणों के स्पंदन में जीवन-मरण परस्पर साम्य,
मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में,

धुँधली रेखाओं की उन खोई मधु-स्मृतियों संग,
कर सकूं मृत्यु के प्रति, प्राणों का आभार क्षण-क्षण में!