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Saturday 19 November 2022

जब-जब ढूंढ़ोगे


विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं तो, दो पल चैन कहां, लेने देगी,
यह जीवन, जां ही लेगी,
वन-वन, ये पतझड़ ही, ले जाएगी,
मरुवन सा, जीवन,
बिखरे पलों के रेत शिखर,
लख कर,
अंन्तःवन की,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

ठहरा सा, गुजरा इक, वक्त भले हूं,
पर लम्हा, इक, जीवंत हूं,
पीछे मुड़कर देखो, तो राह अनंत हूं,
थकाएंगी, ये लम्हा,
पर, सहलाएंगी, वो लम्हा,
हर पग,
थक-थक कर,
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

यूं ना डूबो, उन अनंत रिक्तियों में,
झांको, उन विस्मृतियों में,
ले जाओ, खुद को उन्हीं स्मृतियों में,
वहीं, ठहरा हो कोई,
दो पलकें, यूं ही हों खोई,
जागी सी,
छू जाए शायद!
विश्रांतियों में, महसूस करोगे!
जब-जब ढूंढ़ोगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 1 March 2020

रेत के धारे

सुलगती रही, इन्हीं आबादियों में, 
बहते रहे, तपते रेत के धारे...

सूखी हलक़, रूखी सी सड़क,
चिल-चिलाती धूप, रूखा सा फलक,
सूनी राह, उड़ते धूल के अंगारे,
वीरान, वादियों के किनारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!

सूखी पवन, अगन ही अगन,
सूखा हलक़, ना चिड़ियों की चहक,
न छाँव कोई, ना कोई पुकारे,
उदास, पलकों के किनारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!

खिले टेसू, लिए इक कसक,
जले थे फूल, या सुलगते थे फलक,
दहकते, आसमां के वो तारे,
विलखते, हृदय के सहारे,
दिन कई गुजारे!

सुलगती हुई, इन्हीं आबादियों में!
बहते रहे, तपते रेत के धारे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 3 November 2019

प्यास

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

घूँट, कितनी ही पी गया मैं!
प्यासा! फिर भी, कितना रह गया मैं!
तृप्त, क्यूँ न होता, ये मन कभी?
अतृप्ति! ये कैसी रही?
मन की प्यास, क्यूँ वैसी ही रही?
कुछ है, जो पानी में नहीं!
ढूंढ़ता है, मन वही!
पानी के किनारे, हम थे पानी के सहारे,
पर भटक रहे हम, प्यास के मारे,
है पानी में, इक परछाईं मेरी,
हूँ मैं, परछाईं से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

यूँ तो, संभलता रह गया मैं!
पी कर! थोड़ा, बहलता रह गया मैं!
मशगूल, रहकर दुनियाँ में कहीं!
भूला, सत्य को मैं कहीं!
गूंज मन की, दबाए खुद में कहीं!
करता ही रहा मैं, अनसुनी,
सुनता है, मन वही!
दरिया किनारे, कलकल बहते हैं धारे,
रेत ये सूखे से, हैं दरिया किनारे,
इस प्यास में है, रानाई मेरी,
हूँ मैं, रानाई से अलग!

हुई है, प्यास कैसी ये सजग?
है जो, पानी से अलग!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 24 August 2019

धुंध

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दबी सी आहटों में, आपका आना,
फिर यूँ, कहीं खो जाना,
इक शमाँ बन, रात का मुस्कुराना,
पिघलते मोम सा, गुम कहीं हो जाना,
भर-भरा कर, बुझी राख सा,
आगोश में कहीं,
बिखर जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

अक्श बन कर, आईने में ढ़लना,
रूप यूँ, पल में बदलना,
पलकों तले, इक धुंध सा छाना,
टपक कर बूँद सा, आँखों में आना,
टिम-टिमा कर, सितारों सा,
निगाहों में कहीं,
विलुप्त होना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

दिवा-स्वप्न सा, हर रोज छलना,
संग यूँ, कुछ दूर चलना,
उन्हीं राह में, कहीं बिछड़ना,
विरह के गीत में, यूँ ही ढ़ल जाना,
निकल कर, उस रेत सा,
इन हाथों से कहीं,
फिसल जाना आप का!

बिंब है वो, या प्रतिबिम्ब है आप का!
या धुंध के साये तले, ख्वाब है वो रात का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 23 October 2018

मरुवृक्ष

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

दहकते रहे कण-कण,
पाया ना, छाँव कहीं इक क्षण,
धूल ही धूल प्रतिक्षण,
चक्रवात में, मरुवृक्ष सा रहा....

अचल सदा, अटल सदा....

रह-रह बहते बवंडर,
वक्त बेवक्त, कुछ ढ़हता अंदर,
ढ़हते रेत सा समुन्दर,
सूनी रात में, मरुवृक्ष सा जगा....

अचल सदा, अटल सदा.....

वक्त के बज्र-आघात,
धूल धुसरित, होते ये जज़्बात,
पिघलते मोम से वात,
रेगिस्तान में, मरुवृक्ष सा पला....

अचल सदा, अटल सदा,
तप्त वात में, मरुवृक्ष सा मैं रहा सदा....

Wednesday 20 December 2017

ख्वाबों के घर

वो ख्वाबों के घर, है शायद कहीं किसी रेत के शहर....

है अपरिच्छन्न ये, सदा है ये आवरणविहीन,
अनन्त फैलाव व्यापक सीमाविहीन,
पर रहा है ये घटाटोप रास्तों पर,
सघन रेत के आवरणविहीन बसेरों पर,
रेत का ये शहर, भटकते है हम अपवहित रास्तों पर...

है ख्वाब ये, कब हकीकत बना है ये यार?
टूटा है ये, फिर से बना है बार बार,
हो चुका है फना, ये हजार बार,
बेमिसाल, फिर बनता रहा है ये हर बार,
रेत का ये शहर, फिर भी लग रहा सदा ही ये उजाड़....

है बस धूँध ये, हर तरफ उठ रहा है धुआँ,
न जाने किस जानिब, मंजिल है कहाँ,
अपवहित से उन रास्तों पर,
भटकते रहे है ये दरबदर सदा,
रेत का ये शहर, है किसको खबर लिए जाए ये कहाँ ...

है परित्यक्त ये, परिगृहीत न हुआ ये कभी,
मध्य रेत के डहडहाता रहा फिर भी,
ये ख्वाब हैं, जिद्दी परिंदों से,
सघन रेत पर भी खिल ही आएंगे,
रेत का ये शहर, अपलाप कर भी न इसे मिटा पाएंगे...

Saturday 11 November 2017

रेत सा लम्हा

वक्त की झोली में, अनंत लम्हे हैं भरे,
जीते जागते से, बिल्कुल हरे भरे...
क्युँ न मांग लूं, वक्त से मैं भी एक लम्हा,
चुपचाप क्युँ रहूँ मैं इस पल तन्हा.....?

होगा कोई तो लम्हा, मेरे भी नाम का,
भीड़-भाड़ में, हो जो मेरे काम का,
क्यूँ न ढूंढ़ लूँ, उस झोली से वो एक लम्हा,
तन्हा गुजार लूँ, मै वो ही लम्हा.....!

लम्हा न ऐसा कोई, बस होता जो मेरा,
करता रहा अनसूना, वक्त भी मेरा,
वक्त के हाथों कभी, छूटा था कोई लम्हा,
पास है मेरे, पर रेत सा है तन्हा......!

दूर दूर तक, लम्हों के रेत किसने बिखेरे,
रेत के वो लम्हे, अब तेरे है न मेरे!
दिया था वक्त ने, हरा-भरा जीवंत लम्हा,
भाग्य में मेरे, बस रेत सा लम्हा.....!

Friday 18 March 2016

परत दर परत समय

परत दर परत सिमटती ही चली गई समय,
गलीचे वक्त की लम्हों के खुलते चले गए,
कब दिन हुई, कब ढ़ली, कब रात के रार सुने,
इक जैसा ही तो दिखता है सबकुछ अब भी ,
पर न अब वो दिन रहा, ना ही अब वो रात ढ़ले।

रेत की मानिंद उड़ता ही रहा समय का बवंडर,
लम्हों के सैकत उड़ते रहे धुआँ धुआँ बनकर,
अपने छूटे, जग से रूठे, संबंध कई जुड़ते टूटते रहे,
कभी कील बनकर चुभते रहे एहसासों के नस्तर,
धूँध सी छाई हर तरफ जिस तरफ ये नजर चले।

समय का दरिया खामोश सा बह रहा निरंतर ,
कितनी ही संभावनाओं का हरपल गला रेतकर,
कितनी ही आशाओं का क्षण क्षण दम घोंटकर,
पर नई आशाएँ संभावनाओं को नित जन्म देकर,
बह चले हैं हम भी अब जिस तरफ ये समय चले।

Thursday 17 March 2016

कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी

भाग्य कैसा! कड़कती धूप मे तड़पती एक जिन्दगी वो!

मरुस्थल के सूखी गर्म रेत सी जिन्दगी वो,
मन का आँगन दूर तक विराना,
बालूका तट सी झिलमिल आँखो के कोर,
हृदय में उठती रेत के समुन्दरों के अगनित ज्वर।

प्रारब्ध कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

रेगिस्तान की तपती धूलकण सी जिन्दगी वो,
शरीर रेतकण के ढेर सी ढही हुई,
सैकत ही सैकत दूर तक कोई गीलापन नहीं,
होंठ की कोर में सुलगते दुःखों के असंख्य स्वर।

विधि कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

पिक कहुकिनी वो, पर भूल चुकी थी गाना वो,
सूख चुके थे मन के कानन वन उसके,
अंतर की ध्रुवगंगा सुखी मधुऋतु के इंतजार में,
चेतनतत्व की आसमा से गुजर रहा निर्जल पयोधर।

नियति कैसी! धूप मे तड़पती रही उस जिन्दगी के स्वर!

Saturday 5 March 2016

रेत का समुन्दर

सब कहते हैं मुझको रेत का समुन्दर,
उन्हे नहीं पता क्या-क्या है मेरे अन्दर,
हूँ तो समुन्दर ही,भले रेत का ही सही,
एक दुनियाँ पल रही है मेरे अन्दर भी।

रेत तपकर ही बनती है मृग-मरिचिका,
तपती रेत पाँवों को देती असह्य पीड़ा,
चक्षु दिग्भ्रमित कर देती मृगमरीचिका,
समुंदर रेत का ही पर अस्तित्व है मेरा।

गर्मी रेत की शीतल हो जाती रातों में,
मरीचिका रेत की, है सुन्दर ख्वाबों में,
पल जाती है नागफनी भी  इस रेत में,
विशाल रेगिस्तान दिखती है सपनों में।

गर्भ में रेत के रहती हैं जिन्दगियाँ कई,
गर्भ में रेत की जीवन सुंदर नई नवेली,
करोड़ों आशाएँ  दफन रहती रेत में ही,
समुन्दर रेत का मगरअस्तित्व मेरा भी।

उथली जल धार टिकती मुझ पर नहीं,
सोख लेता हूँ प्राण, मैं उथले जल की,
स्नेह नहीं स्वीकार, मुझको बूंदों जैसी,
रेत का समुन्दर अपार जलधार प्यारी।

Thursday 3 March 2016

अकस्मात् ही

कुछ मन की खुशी, अकस्मात् मिली यूँ,
रेत भीग गई हो कहीं, रेगिस्तान में  ज्यूँ,
जैसे जून में जमकर बरसी है बारिश यूँ,
कौंध गया है मन जैसे ठंढ़ी फुहार में यूँ।

हठात् मिल जाता है जब मनचाहा कोई,
खुशी मिलन की तब हो जाती है दोगुनी,
अकस्मात् बिछड़े जब, मिल जाते कहीं,
जीने की चाहत तब, बढ़ जाती और भी।

बिजली कौंधती बारिश मे अकस्मात् ही,
बूंद बनती है मोती सीप में अकस्मात् ही,
आसमान मे छाते हैं बादल अकस्मात् ही,
दो दिल मिलते हैं जीवन में अकस्मात ही।

पल पल की ये खुशियाँ जीवन की निधि,
हर पल जीवन जीने की देती है ये शक्ति,
अकस्मात् गले किसी को लगा लो अभी,
मंत्र शायद खुश रहने का जीवन में यही।