Friday 30 December 2022

रुकना क्या

रुक जाने की जिद ना कर....

इस धार में, बह जाने दे,
अन्त: जो बातें, मझधार में कह जाने दे,
ले हाथों में पतवार,
वक्त का क्या! 
रोक ले, कब, हवाओं का रुख!
छीन ले कब, ये सुख!

रुक जाने की जिद ना कर....

यूं जिरह, फिर कर लेना,
जिद, रुक जाने की, यूं फिर ना करना,
पर, रखना ऐतबार,
धर लेना करार!
भीगे अँसुवन से ये नैन तुम्हारे,
यूं रोके ना, राह हमारे!

रुक जाने की जिद ना कर....

गर इस जिद पर, मैं हारा,
क्या रुक जाएगी ये जीवन की धारा?
बड़ा तीव्र ये बहाव,
बहा लेगी, नाव!
ले जाएगी उस सागर की ओर,
छूट जाएगी, हर डोर!

रुक जाने की जिद ना कर....

जीवन, चलने का नाम,
चलते ही रहते, ये सुबहो और शाम,
नित ही नया सवेरा,
नित नव जीवन!
इक ज़िद रख, बस चलने की,
सूरज सा ढ़लने की!

रुक जाने की जिद ना कर....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 25 December 2022

निशा

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशीथ काल, 
जब पल हो जाते प्रशीत,
तब दबे पांव, घूंघट ओढ़े, कोई आता,
पग धरता, बोझिल मन मानस पर,
सिहर कर, जग उठती,
सोई चेतना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

पंख पसारे,
ये विहग‌ आकाश निहारे,
विस्तृत आंचल के, दोनो छोर किनारे,
उन तारों से, न जाने कौन पुकारे,
हृदय के, गलियारों में,
जागे वेदना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशा जागती,
खिल उठती, रजनीगंधा,
लय पर नाद-मृदंग की, झूमती निशा,
सहचर बन, गा उठते निशाचर,
ज्यूं, नव राग की हुई,
इक रचना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 20 December 2022

गर फिर ना मिलूं

गर, फिर ना दिखूं मैं, नजर में दूर तक!

गर, चल ना सकूं मैं, सफर में दूर तक!
थक कर चूर हो जाऊं,
हमेशा के लिए, तुमसे दूर हो जाऊं,
जारी, तुम सफर रखना,
कहीं, मेरी खातिर, तुम न रुकना,
सफर के, आखिरी छोर तक,
लक्ष्य साधे,
रुकना वहीं, उस भोर तक,
वहीं, इक सांस भरना,
विश्राम करना!
तभी आराम, मुझको भी मिल सकेगा!
बस, वहीं तब!

अगर, रह ना सकूं मैं सफर में संग तेरे!
सांसें, विवश कर जाएं,
ये बहारें, लौट कर फिर से न आएं,
ये दामन, तुम ना भिगोना,
क्रूर नियति, अपनी चालें चलेगा,
रफ़्तार, थोड़ी कम ना करेगा,
राह पूछते,
चले आना, उस छोर तक,
सिमटना उसी राख में,
विश्राम करना!
तभी आराम, मुझको भी मिल सकेगा!
बस, वहीं तब!

गर, फिर ना दिखूं मैं, नजर में दूर तक!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 17 December 2022

लम्हातें

तुम थे, उस तरफ,
और इस तरफ थी, बस यादें तेरी,
यूं सफर में, कुछ कटती रही,
लम्हातें मेरी!

यूं तो संग था, एक टुकड़ा आकाश,
एक तन्हा काश,
और, ताश के घर कटती रही,
लम्हातें मेरी!

और ये मन, जाए कभी उस तरफ,
और, इस तरफ,
राह तकती, रह जाए अकेली,
लम्हातें मेरी!

तस्वीरें कोई, इन दीवारों पर नहीं,
लगे वो है यहीं,
खींच लाती है यूं पास तुमको,
लम्हातें मेरी!

खुश्बू सी, अब भी आती है सदा,
कहीं तुम जुदा,
यूं गुजरती है, तुम्हारे संग ही,
लम्हातें मेरी!

उधर, जाने किधर,
गुम हमसे वो राहें, न जाने किधर,
ले ही आई, पर पास तुमको,
लम्हातें मेरी!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 13 December 2022

बदलाव

युग किये, समर्पण,
पर अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!
हैरान सा मैं, 
क्यूं आज अंजान सा मैं?

बेगानों सा, ताकता वो मुझको, 
झांकता वो, अंजानों सा,
भुलाकर, युगों का मेरा समर्पण,
बिसरा, वो मुझको!
 
अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

यूं हंसकर सदा, सदियों मिला,
बाग सा, हंसकर खिला,
यूं भुलाकर, सदियों का अर्पण,
दे रहा, कैसा सिला!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

हूं अब भी, इक शख्स मैं वही,
जरा शक्ल, बदली सही,
भरकर आगोश में, ये दर्पण,
सदियां बिताई यहीं!

अब ना लगे, पहले सा ये दर्पण!

चेहरे पे पड़ी, वक्त की धमक,
हरी झुर्रियों की चमक,
हर ले गईं, मुझसे ये यौवन,
समझा न, नासमझ!

युग किये, समर्पण,
अब ना लगे, उस पहले सा ये दर्पण!
हैरान हूं मैं, 
क्यूं आज अंजान हूं मैं?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 11 December 2022

आईने का सच

सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!

हो पास, जैसे कोई परछाईं,
किरण कोई, छांव लेकर हो आई,
छुईमुई, छूते ही सरमाई,
अपनत्व ये, सच सा लगे कितना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

बिना बोले , ये कैसा वादा?
करे यकीं, कोई हद से भी ज्यादा,
करे बेशर्त, कोई समर्पण,
अर्पण करे, अन्तस्थ की भावना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

खींच ले, कोई अपनी ओर,
यूं कहीं बांध ले, पतंगों सा डोर,
उलझाए, धागों सा मन,
पर आसां कहां, वो डोर थामना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

अपरिचित से इक परिचय, 
छुपा, निरर्थक बातों में आशय,
यूं ढूंढता, बातों में सार,
ज्यूं, शब्दों नें गढ़ी कोई अल्पना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!

सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

वही धुंध वही कोहरे

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

यूं ही दिन भी, बह चलेगा ओढ़कर चादर,
ज्यूं बंधी हों, पट्टियां आंखों पर,
और चल रहा हो,
इक मुसाफिर, उसी राह पर,
सर पर, एक गठरी धरे,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

अंजान, उधर, उस रौशनी को क्या खबर,
कि किधर, धुंध की गरी नजर!
कितना है सवेरा,
छुपा है कहां, कितना अंधेरा,
भटकता, किधर आदमी,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे....

रहे कब तक, न जाने, धुंध की सियासत,
सहे कब तक, उनकी नसीहत,
कोहरे सा आलम,
बदहवास, पसरे से ये दोराहे,
जाने कहां, लिए जाए,
सवेरे-सवेरे!

वही धुंध, फिर वही कोहरे,
सवेरे-सवेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 7 December 2022

पीपल सा पल

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

मन्द झौंके उनके, बड़े शीतल,
पत्तियों की, इक सरसराहट,
जैसे, बज उठे हों पायल,
मृदु सी छुअन उसकी, करे चंचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

यूं भटका सा, इक पथिक मैं,
आकुल, हद से अधिक मैं,
जा ठहरूं, वहीं हर पल,
घनी सी छांव उसकी, करे घायल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

वो घोल दे, हवाओं में संगीत,
छेड़ जाए, सुरमई हर गीत,
तान वो ही, करे पागल,
हैं वो पल समेटे, कितने हलचल!

वो दो पल, जैसे घना सा पीपल....

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday 6 December 2022

बहाव में (१५०० वां पोस्ट)


उनकी ही बहाव में, बह गए हम,
उस क्षण, वहीं रह गए हम!

यूं थे भंवर कितने, बहाव में,
खुश थे कितने, हम उसी ठहराव में,
दर्द सारे, सह गए हम,
संग बहाव में, बह गए हम!

आसां कहां, यूं था संभलना,
उन्हीं अट-खेलियों संग, यूं भटकना,
यूं भंवर में, बहे हम,
उसी बहाव में, रह गए हम!

निष्प्रभावी से रहे यत्न सारे,
बन चले, ये बहाव ही दोनो किनारे,
विवश, प्रवाह में हम,
उसी चाह में, बह गए हम!

अब तो बस, है चाह इतनी,
यूं‌‌ बहते रहे, शेष है प्रवाह जितनी,
वश में, बहाव के हम,
बह जाएं, उसी राह में हम!

उनकी ही बहाव में, बह गए हम,
उस क्षण, वहीं रह गए हम!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday 4 December 2022

छोर

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

छोड़ आए, उधर ही, कितनी गलियां,
कितने सपने, छूटे उधर,
मन के मनके, टूटकर, बिखरे राह में,
अब, लौट भी न, पाएं उधर,
छूटा जिधर, वो डोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

शक्ल अंजान कितने, इस छोर पर,
हैं हादसे, हर मोड़ पर,
सिमटता हर आदमी अपने आप में,
डस रही, अपनी परछाइयां,
विरान कैसा, ये छोर है!

लिए जाए किधर, ये मोड़ है!

धूल-धुसरित हो चले, ये पांव सारे,
धूमिल से दोनों किनारे,
ढूंढता खुद की ही, पहचान राहों में,
थक कर, चूर-चूर ये बदन, 
करे हैरान, यह छोर है!

इधर ही, उस राह का इक छोर है,
लिए जाए किधर, ये मोड़ है!
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)