Sunday, 5 March 2017

उत्कंठा और एकाकीपन

दिशाहीन सी बेतरतीब जीवन की आपाधापी में,
तड़प उठता मन की उत्कंठा का ये पंछी,
कल्पना के पंख पसारे कभी सोचता छू लूँ ये आकाश,
विवश हो उठती मन की खोई सी रचनात्मकता,
दिशाहीन गतिशीलताओं से विलग ढूंढता तब ये मन,
चंद पलों की नीरवता और पर्वत सा एकाकीपन...

जीवन खोई सी आपधापी के अंतहीन पलों में,
क्षण नीरव के तलाशता उत्कंठा का ये पंछी,
घुँट-घुँट जीता, पल-पल ढूंढता अपना खोया आकाश,
मन की कँवल पर भ्रमर सी डोलती सृजनशीलता,
तब अपूर्ण रचना का अधूरा ऋँगार लिए ढूंढता ये मन,
थोड़ी सी भावुकता और गहरा सा एकाकीपन.....

रचनाएँ करती ऋँगार एकाकीपन के उन पलों में,
पंख भावना के ले उड़ता उत्कंठा का ये पंछी,
कोमल संवेदनाओं को मिलता अपना खोया आकाश,
नीरव सा वो पल देती उत्कंठाओं को शीतलता,
विविध रचनाओं का पूर्ण संसार बन उठता ये मन,
सार्थक करते जीवन, ये पर्वत से एकाकीपन....

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