Saturday 24 April 2021

टूटता पुरुष दंभ

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

पर तुम थे, बस, दो बातों के भूखे,
स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे,
आसां था कितना, तुझको अपनाना,
तेरे उर की, तह तक जाना,
कुछ भान हुआ, अब यह मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे,
निज को भूले, संग हमारे,
था स्वीकार तुझे, निःस्वार्थ समर्पण, 
पुरुष दंभ पर, स्व-अर्पण,
एहसास हो चला, अब ये मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

उर पर, अधिकार कर चले तुम,
हार चले, यूँ पल में हम,
दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
मन, कब हाथों से छूटा,
अब तक, भान हुआ ना मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको!

रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
कुछ किश्तों में ही तैयार,
इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
इक आंगन, दो उर का,
शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!

शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको,
सर्वस्व तुम्हें देकर, पा लेता मैं तुझको!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

26 comments:


  1. रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
    कुछ किश्तों में ही तैयार,
    इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
    इक आंगन, दो उर का,
    शेष है क्या, भान कहाँ मुझको..
    वाह अतिउत्तम्

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    1. विनम्र आभार आदरणीया शकुन्तला जी

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  2. मन के सुंदर भावों को शब्द दिए हैं ।अच्छी प्रस्तुति ।

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  3. उर पर, अधिकार कर चले तुम,
    हार चले, यूँ पल में हम,
    दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
    मन, कब हाथों से छूटा,
    अब तक, भान हुआ ना मुझको!
    स्नेह और सिर्फ स्नेह पाने वाले को कोमल मासूम भाव आखिर मन जीत ही लेते है..।
    बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण सृजन
    वाह!!!

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    1. विनम्र आभार आदरणीया सुधा देवरानी जी।

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  4. वाह! बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ।
    लाजवाब अभिव्यक्ति।🙏

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  5. एक अलग ही भाव लोक में विचरण करने जैसा होता है आपको पढ़ना । बहुत ही सुन्दर ।

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    1. विनम्र आभार आदरणीया अमृता तन्मय जी।

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  6. "शेष रह जाता कुछ, वो भी दे देता तुझको"

    "स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे"

    "दो शब्दों पे ही, तुम खुद को हारे"

    "हार चले, यूँ पल में हम"

    "शेष है क्या, भान कहाँ मुझको"

    ...
    बहुत प्रभावशाली रचना आपने रचा है भईया! मुझे यह बहुत पसंद आया। मेरे लिए यह सबसे ऊपर होगी उन सभी रचनाओं में जितनी मैंने आपकी रचनाएं पढा है।

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    1. विनम्र आभार आदरणीय प्रकाश साह जी।

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  7. उर पर, अधिकार कर चले तुम,
    हार चले, यूँ पल में हम,
    दंभ पुरुष का, यूँ ही शीशे सा टूटा,
    मन, कब हाथों से छूटा,
    अब तक, भान हुआ ना मुझको!
    बहुत ही मार्मिक रचना --कृतज्ञ भावों का आत्मीय विस्तार है! जब कोई अपनी आत्मीयता से हमारा मन जीत लेता है, इससे बढ़कर कुछ कहा भी नहीं जा सकता! पूर्णरुपेण कृतज्ञ ह्रदय के ये उद्गार मन को छू गए! हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 🙏🙏

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  8. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 26-04 -2021 ) को 'यकीनन तड़प उठते हैं हम '(चर्चा अंक-4048) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. विनम्र आभार आदरणीय रवीन्द्र जी।

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  9. सुंदर प्रस्तुति

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  10. बेहद खूबसूरती से कोमल भावों को कविता में पिरोया है आपने ।
    अति सुन्दर सृजन।

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    1. विनम्र आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।

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  11. बहुत खुलकर ल‍िखा पुरुष दंभ को लेकर ..वाह स‍िन्हा साहब ..अत‍िसुंदर ''रिश्तों का, अजूबा यह व्यापार,
    कुछ किश्तों में ही तैयार,
    इक बंध, अनोखा जीवन भर का,
    इक आंगन, दो उर का,
    शेष है क्या, भान कहाँ मुझको!'' ..वाह

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  12. कभी कभार हम वाकई किसी के सर्वस्व की तलाश में नहीं होते...हम नहीं चाहते वो स्वयं को हमें पूर्णतः समर्पित कर दे...

    हम बस होते हैं तो

    दो बातों के भूखे,
    स्नेह भरे, दो प्यालों के प्यासे

    इतना सा ही पाकर दो लोगों के बीच पारस्परिक प्रेम को स्थापित किया जा सकता है...इसी छोटी सी मगर मोटी बात को हम नहीं समझ पाते

    भावपूर्ण लेखन सर

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    1. विनम्र आभार आदरणीय शीलव्रत मिश्रा जी।

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