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Sunday, 13 December 2020

निराधार आकाश

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

देशहित से परे, न आंदोलन कोई,
देशहित से बड़ा, होता नहीं निर्णय कोई,
देशहित से परे, कहाँ संसार मेरा,
देशहित ही रहा संस्कार मेरा,
पर, डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

प्रतिनिधि चुना, खुद मैंने हाथों से,
प्रभावित कितना था मैं, उनकी बातों से!
इक दीप सा था, वो प्रकाश मेरा,
खड़ा सामने था, इक सवेरा,
पर, डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

अंधेरों में, रुक चुका है ये कारवाँ,
भरोसे के काबिल, शायद, न कोई यहाँ!
रिक्तियों से भरा, अंकपाश मेरा,
निःपुष्प सा, ये पलाश मेरा,
डिगने लगा है, अब विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

चालें, अपनी ही, नित चलता रहा,
वो फरेबी, इक चक्रव्यूह ही रचता रहा,
कल तक, वो था संगतराश मेरा,
ले न आए वही, विनाश मेरा!
ऐसा डिग रहा अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!

सर्वोपरि हो, देश हित, फिर हैं हम,
पर उसी नें इस देश में, फैलाया है भ्रम,
इक अंधकार में है, आकाश मेरा,
निराधार ही था, विश्वास मेरा!
ऐसा डिग चला अब, विश्वास मेरा!

निराधार तो नहीं, कहीं ये आकाश मेरा!
डिग रहा क्यूँ, विश्वास मेरा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)