सोचता हूँ कभी!
पत्थर को श्रद्धा पूर्वक पूजता रहूँ,
शायद थोड़ी संवेदना उसमे भी जग जाए,
जज्बातों के तूफान उसमे भी उमड़ पड़े,
पिघल पड़े या फिर दो बूंद आँसू ही निकल पड़े!
पर क्या ये संभव भी है क्या?
सोचता हूँ कभी!
पत्थर के संवेदना, जज्बात, आँसू तो होते नहीं!
लाख सर पटको, सर फूटेगा पत्थर नही!
फिर इन्सान पूजता क्यों उसको ही?
ईश की मूर्ति हेतु क्युँ चयनित पत्थर ही?
सोचता हूँ कभी!
शायद जग में पूजित होने के यही गुण है,
असंवेदनशीलता, ताकि भावना शून्यता पनपे,
गैर-जज्बाती होना, ताकि पीड़ा शून्यता जगे,
पत्थर दिल होना, ताकि मन हीनता सुलगे,
सोचता हूँ कभी, क्युँ न जग में सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बनूँ?