Saturday, 28 September 2024

निर्बाध

ना डग में, पहली सी तीव्रता,
ना पग, अब यूं उठता,
शनै: शनै:, दिवस यूं ढलता,
ज्यूं संध्या, थामे कदम!

रुकता चलता, उलझन में मैं,
बहता, निर्बाध ये समय,
क्यूं, अवाक सा, मूक हर शै?
अस्त का, कहां उदय?.....

क्या घड़ी, किसी अवसान की!
पतन, किसी उत्थान की,
राह कोई, पर्वतीय ढ़लान की,
ये घड़ी नहीं विहान की....

उम्मीदें जगाती, उद्दीप्त किरण,
गर, न छाता इक ग्रहण,
रिक्त ना रहता, कोरा दामन,
छलक न आते ये नयन.....

अनुत्तरित प्रश्नों की, दीर्घ लड़ी,
निर्बाध, दौड़ती इक घड़ी,
पलछिन ये परछाईं होती बड़ी,
जुड़ती-टूटती इक कड़ी....

मध्य, नीरवता के, जगती रातें,
उलझी सी, लगती बातें,
निशाचर, क्यूं ऐसे झुंझलाते?
ठिठक-ठिठक, सुस्ताते....

निरंतर, क्षितिज को निहारता,
उस शून्य को पुकारता,
चाहता फिर उसकी चंचलता,
संग उसके इक वास्ता.....

रुकता चलता, उलझन में मैं,
बहता, निर्बाध ये समय,
इक आस लगाए, चुप हर शै,
अस्त का, कहां उदय?.....

Sunday, 8 September 2024

सब फीका लागे

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

सिमटे सब रंग, लागे इक ही अंग,
ज्यूं, रिमझिम सा मौसम,
घोल रहा हो कोई भंग,
सावन सा आंगन,
मन मदमाया सा लागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

तुम बिन, जागे पतझड़ सा बेरंग,
ज्यूं, वृक्षों पर इक मातम,
पात-पात विरहा के रंग,
छाँव कहां, मन,
कंटक पांव तले लागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

ले आए तू, त्योहार भरा इक रंग,
रुत कोई बसंत-बयार सा,
रव जैसे नव-विहार सा,
पाए चैन कहां,
मन, झाल-मृदंग बाजे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

तू कोई कूक सी, इक मूक सा मैं,
तू रूपसी और ठगा सा मैं,
ज्यूं, ले नभ की आभा,
निखरे प्रतिमा,
इक भोर सुहानी जागे!

तू लागे ऐसी, तुम बिन सब फीका लागे!

Saturday, 27 July 2024

पल

हँसते, गाते, कुम्हलाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!

करती, उलझी सी कितनी बातें,
बेवश, लम्बी सी रातें,
ले कर सौगातें, तन्हाई की वो लम्हाते,
हम खुद को समझाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!

हँसते, गाते, कुम्हलाते.....

दो वे पल, दो उस पल की बातें,
वो, किनको बतलाते,
मन के तहखाने, मन की, सारी बातें,
अनसुने ही रह जाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!

हँसते, गाते, कुम्हलाते.....

पात-पात, पतझड़ में झर जाते,
दो पल, कुछ पछताते,
पल तीजे, डाल-डाल, फिर इठलाते,
पतझड़ तो यूं ही गाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!

हँसते, गाते, कुम्हलाते,
कुछ पल, बस छलने को चल आते!

Wednesday, 17 July 2024

अपनत्व

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

गूंथे वो एहसास, बींधे से ये साँस,
छलकी सी ये आँखें,
जागे ये पल, जागी सी रातें,
बंधा ये आस,
खाली ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

ये दूरियां, पर है वो हर पल यहां,
बंधता यादों का शमां,
फैलता गहराता घेरता धुआं,
नीला आसमां,
स्वप्निल ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

तोड़ते नीरवता, गूंजते उनके रव, 
स्वत्व को छोड़ता स्व,
हर तरफ वो, उनसे ही हर शै,
ये अपनत्व,
बंधते ये पल, ऐसे ही तो न थे!

लगे वो अपने से, या वो, अपने ही थे!
या, थे वो सपने!

Wednesday, 19 June 2024

साए

और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए,
यूं ढ़ले दिन, ज्यूं उभर आए,
रात के साए....

चुप से रहने लगे, गुनगुनाते से वे पल, 
खुद में खोए, इठलाते से वो पल,
बड़े बेरंग से, लगने लगे,
रंगी ये साए....

और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए..

ढूंढ़ता हूं कहीं, दरकता सा वो लम्हा,
जाने है कहां, पिघलता वो शमां,
कहीं, नज़रों से ओझल,
वक्त के साए....

और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए..

यूं, कल्पनाओं में, उभर आते हैं वही,
रंग वे सारे, बिखर जाते हैं कहीं,
जाग उठते, हैं वे पहर,
और वे साए....

और अब मिलते नहीं, कहीं सांझ के साए,
यूं ढ़ले दिन, ज्यूं उभर आए,
रात के साए....

Saturday, 23 March 2024

वो कौन

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

वो कौन, जो पहले, स्वप्न सा आया,
फिर, पलकों में समाया,
इंद्रधनुष सी, कैसी, वो परछाईं,
छुई-मुई सी, मुरझाई,
है वो कोई भरम, टूटे जो पल-पल,
कैसा वहम, छूटे ना इक पल!

वो कौन..

मन की जमीं पे, वृक्ष सा वो उभरा,
बसंत सा वो जैसे संवरा,
नृत्य कर उठे, मृदु वे पात-दल,
हर ओर, जैसे हलचल,
दो नैन जैसे, झांकते हों हर-पल,
घेरे वे ही, एहसास पल-पल!

वो कौन..

आए चलकर, उतर कर बादलों से,
झांके छुपके, आंचलों से,
हृदय, धुन इक उसी की सुनाए,
सुनहरे गीत कोई गाए,
आज लय पर, थिरकते वे बादल,
गाने लगे हैं, संगीत कलकल!

वो कौन, छेड़े है मन वीणा के तार,
गा उठा धुन कोई नया,
ये जर्जर सितार!

Wednesday, 13 March 2024

यूं हँसो तुम

यूं हँसो तुम, और बंद हो जाएं पलकें,
कहीं तुम रहो, हम आएं चलके!

हो मद्धम सी चांदनी, और मुस्कुराओ तुम,
दूं मैं सदा, और, आ जाओ तुम,
और, बीते ये पल, ये समय, तेरे संग,
हल्के हल्के!

यूं हँसो तुम, और बंद हो जाएं पलकें...

कहीं हो ना जाए जुदा, वक्त से, ये परछाईं,
कहीं कर न दे, वक्त ये रुसवाई,
चलो, संग हम चले, कहीं वक्त से परे,
बहके-बहके!

यूं हँसो तुम, और बंद हो जाएं पलकें...

इस मझधार में, बह चले इक धार सा हम,
इस कश्ती में, पतवार सा हम,
दो किनारों से अलग, बह जाए कहीं,
छलके छलके!

यूं हँसो तुम, और बंद हो जाएं पलकें,
कहीं तुम रहो, हम आएं चलके!

Saturday, 2 March 2024

वश में कहां

वश में कहां, जो सांझ होते ही, लौट आते!

गुजरा, वो इक सदी हूँ,
जो, सूख चली, वो इक नदी हूँ,
कल के, किसी छोड़ पर,
फिर मिल ना सकूं, गर, किसी मोड़ पर,
न होना परेशां!
सोच लेना, 
खामोश हो चली, वो सदाएं,
गुजर चला, वो कारवां,
रुक चली, रवानियां!

वश में कहां, जो सांझ होते ही, लौट आते!

धीर, मन पे रखना,
तीर उस नदी के, चुप ही रहना,
बीते, वो वक्त के सरमाए,
न होगा कोई वहां, सुने जो तेरी सदाएं,
वो खुद बेनिशां!
जान लेना,
फिर ना भीगेगा, ये किनारा,
दूर बह चली, वो धारा,
गुजर चली, बतियां!

वश में कहां, जो सांझ होते ही, लौट आते!

वक्त ही छीन लेता,
वो तन्हाई, फुर्सत के वो लम्हाते,
कम्पित, जीवन के पल,
वो सांसें, वो सौगातें, वक्त ही जो देता,
खुद, बे-आशियां!
मान लेना,
उजारा, उसने ही आशियां,
लूटी, उसने ही दुनियां,
रुक चला, कारवां!

वश में कहां, जो सांझ होते ही, लौट आते!

Tuesday, 27 February 2024

निशा के पल

निशा के पल ये, दे नयनों को विराम जरा,
निशांत पलों को, आराम जरा!

चहक कर, बहकेगी निशिगंधा,
और, जागेंगे निशाचर,
रह-रह कर, महकेंगे स्तब्ध पल,
ओढ़, तारों का चादर,
मुस्काएंगी, दिशांत जरा!

निशा के पल ये, दे नयनों को विराम जरा,
निशांत पलों को, आराम जरा!

कहीं, खामोश जुबांनें बोलेंगी,
वो, राज कई खोलेंगी,
गुजरेंगी, हद से जब उनकी बातें,
देकर, भींनी सौगातें,
भीगो जाएंगे, नैन जरा!

निशा के पल ये, दे नयनों को विराम जरा,
निशांत पलों को, आराम जरा!

कलकल सी ये स्निग्ध निशा,
चमचम, वो कहकशां,
पहले, जी भर कर, कर लें बातें,
फिर मिलने के वादे,
आपस में, कर लें जरा!

निशा के पल ये, दे नयनों को विराम जरा,
निशांत पलों को, आराम जरा!

Friday, 23 February 2024

कहां ये मन

कहीं हूं मैं, और, कहीं ये मन...
उड़ चला कहीं,
न जाने, क्यूं गया कहीं?
बिन कहे,
कहीं, भटका ये मन!

वश में, यूं भी तो, कब ये मन!
करे अपनी ही,
कहे, बहकी बातें कई,
न समझे,
रिवाजों को, ये मन!

उलझाए, भीगे से जज्बातों में!
रुलाए, रातों में,
पहेली अनसुलझी सी,
कह जाए,
इन कानों में ये मन!

जाने, अब, ठौर कहां मन का!
जैसे, हो दरिया,
या, चंचल इक खुश्बू,
बह जाए,
बहा ले जाए, ये मन!

कहीं हूं मैं, और, कहीं ये मन...
जाने, ढूंढ़े क्या!
यूं लगता, कोई ठौर नया!
या वो ढूंढ़े,
संगी दूजा ही ये मन!