Wednesday 9 March 2016

भरम

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

एक छुअन सी महसूस होती हर पल,
एहसास अंजान खुश्बु की पल पल,
खामोशी फैली दिल के प्रस्तर पर प्रतिपल,
फिजाओं में पल पल कैसी है हलचल.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

अदृश्य अस्तित्व क्यों हर पल उसकी,
ध्वनि है यह किस मूक आकृति की,
गुंजित हो रही वादियाँ ध्वनि से किसकी,
आह सी मन से निकल रही आज किसकी....!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

पत्तियों में पल पल ये सरसराहट कैसी,
सिहरन सी बदन में छुअन की कैसी,
जेहन में हर पल गूंजती ये आवाज कैसी,
एहसास नई जगी दिल मे आज कैसी.......!

भरम सा हो रहा है मन को, या ये आहट है उनकी.....?

Tuesday 8 March 2016

ऩारी: ईश्वर का एक एहसास

एहसास खूबसूरती का जब ईश्वर को हुआ,
श्रृष्टि निर्माता ने तब ही जन्म स्त्री को दिया।

इक एहसास कोमलता का जब हुआ होगा,
तब  उसने स्त्री का कोमल हृदय रचा होगा।

जग के भूख प्यास की जब हुई होगी चिन्ता,
तब उसने माता के आँचल में दूध भरा होगा।

जब एहसास कोमल भाव की मन में जागी,
ममत्व, स्त्रीत्व, वात्सल्य तब नारी को दिया।

धैर्य, संकल्प, सहनशीलता, भंडार ग्यान का,
सम्पूर्ण रूपेण नारी को उसने दे दिया होगा।

चाँदनी का घमंड तोड़ने को ही शायद उसने,
अकथनीय अवर्णनीय सुन्दरता नारी को दी।

सुन्दरता को परिभाषित करते करते उसने,
नारी रूप की परिकल्पना कर डाली होगी।

पुरुष वर्ग जन्मों से याचक नारी ममत्व का,
नारी बिन अस्तित्व नही कही पुरुष वर्ग का।

स्त्री जगत जननी

मन आज सोच रहा मेरा.....!

श्रृष्टि का आरंभ क्या स्त्री से हुआ?
जन्म देने की शक्ति सिर्फ स्त्री को ही क्यूँ?
जगत -जननी स्त्री ही क्यूँ....?
दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली सारी स्त्री क्यूँ?

अनेकों प्रश्न उठ रहे मन में आज....!

स्त्री ही तो है जग की शक्ति स्वरूपा,
सुन्दरता की असीम पराकाष्ठा और अधिष्ठाता,
पूर्ण ममता और स्नेह का मूर्त स्वरूप,
जगत को प्रथम दुग्ध पान से सीचने वाली!

फिर यह विवाद क्यूँ, दिवस विशेष यह क्यूँ?

नाभि मे नारी के पलती है दुनियाँ,
कोख नारी की ही प्रथम पाती ये दुनियाँ,
छुपने को माता का आँचल ही यहाँ,
अस्तित्व पुरुष का जग में नगन्य नारी बिना।

किसी क्षण नारी का अपमान करती क्युँ दुनियाँ?

भटके हैं क्या कुछ कन्याओं के स्वर भी?
कैकैयी, मंथरा, मंदोदरी, अप्सराएँ भी महिला ही,
फिसले थे कुछ कदम कुल पल इनके भी,
सृष्टि की विविधताओं का इक रूप है यह भी!

नारी तो है अधिष्ठाता शक्ति, प्रभुसत्ता, सम्मान की!

सत्य, शिव और सुन्दर जग में माता ही,
स्त्री रूप मे ईश्वर नें जग मे जना इनको ही,
लटों में इनके ही गंगा और गंगोत्री भी,
धरा के विविध स्वरूप की अलौकिक निधि स्त्री ही!

मन आज सोच रहा मेरा ........!

Monday 7 March 2016

मन को भरम हर पल

भरम मन को हो रही हर पल आज किसकी.....?

एक छुअन सी महसूस हो रही हर पल,
एहसास अंजान खुश्बु की पल पल,
खामोशी फैली दिल के प्रस्तर पर प्रतिपल,
फिजाओं में पल पल कैसी है हलचल.......!

भरम मन को हो रही हर पल आज किसकी.....?

अदृश्य अस्तित्व क्यों हर पल उसकी,
ध्वनि है यह किस मूक आकृति की,
गुंजित हो रही वादियाँ ध्वनि से किसकी,
आह सी मन से निकल रही आज किसकी....!

भरम मन को हो रही हर पल आज किसकी......!

पत्तियों में पल पल ये सरसराहट कैसी,
सिहरन सी बदन में छुअन की कैसी,
जेहन में हर पल गूंजती ये आवाज कैसी,
एहसास नई जगी दिल मे आज कैसी.......!

भरम मन को हो रही हर पल आज किसकी.....?

वो करती क्या? गर साँवला रंग न मेरा होता!

रंग साँवला मेरा, है प्यारा उनको,
वो करती क्या? गर साँवला रंग न मेरा होता......!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....

पल पल वो तिल तिल मरती,
अन्दर ही अन्दर जीवन भर घुटती,
मन पर पत्थर रखकर वो जीती,
विरक्ति जीवन से ही हो जाती,
या शायद वो घुट घुट दम तोड़ देती!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....

पलकें अपलक उनकी ना खुलती,
भीगी चाँदनी में रंग साँवला कहाँ देेखती,
पुकारती कैसे फिर अपने साँवरे को,
विरहन सी छंदहीन हालत होती,
शायद जीवन ही सारी पीड़ा मय होती!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....

नैनों से सपने देखना वो भूल जाती,
रातें बीतती उनकी करवट लेती,
मन का चैन कही वादियों में वो ढ़ूंढ़ती,
दिन ढ़ल जाते उनके ख्वाहिशों में,
ये रातें शायद हसरतों वाली ना होती!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....

आँसुओं मे डूबी ये जीवन होती,
रातों में उनकी आँखें डबडब जगती,
जाने किन ख्यालों में खोई होती,
जीवन सारा बोझ सा वो ढ़ोती,
जीते जी शायद वो बेचारी मर जाती!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....
होता क्या? गर होता रंग गोरा मेरा........!

प्यारा प्यारा सा ये जीवन न होता,
एकाकीपन इस मन में पलता,
ना तू सजनी होती न मैं तेरा साजन होता,
मेरा भी कोई जीवन साथी न होता,
अधूरी तुम होती और अधूरा मैं मर जाता!

शायद!.....शायद क्या? सही में.....
वो करती क्या? गर साँवला रंग न मेरा होता......!

Sunday 6 March 2016

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईनें में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
अमिट प्रीत की स्पष्ट हो रही वाणी अब।

कर्ण सा दुर्भाग्य किसी का न हो!

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस कुन्तीपुत्र कर्ण नें?

कोख मिला कुन्ती का किन्तु, कुन्ती पुत्र न कहलाया,
जिस माता ने जन्म दिया, उसने ही उसको ठुकराया,
कुल रत्न होकर भी,  कुल का यशवर्धन न बन पाया,
आह! विडम्बना ये कैसी,जीवन की कैसी है ये माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस दानवीर कर्ण नें?

उपाधि सूर्यपुत्र की पर,सूतपुत्र जीवन भर कहलाया,
कर्मों से बड़ा दानवीर पर, ग्यान का दान न ले पाया,
दान कवच-कुंडल का उससे, इंन्द्र नें कुयुँकर मांगा,
आह! ये कैसी विधाता की लीला, ये कैसी है माया।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस सूर्यपुत्र कर्ण नें?

ग्यान गुरू का पाने को,  कह गया छोटी सी झूठ वो,
सूत पूत्र के बदले खुद को, कह गया ब्राह्मण पूत्र वो,
शापित हुआ गुरू से तब, बना जीवन का कलंक वो,
अन्त समय जो काम न आया,पाया उसने ग्यान वो।

हाय! ये भाग्य कैसा पाया था उस महाग्यानी कर्ण नें?