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Saturday, 6 March 2021

तब मानव कहना

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

सृष्टि के, धरोहर तुम,
विधाता की, रचनाओं में, मनोहर तुम,
पर हो अधूरा, एक सोहर तुम,
जग जाएगी जब, सुप्त संवेदना,
विहान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

तुम्हीं में, परब्रम्ह रमे,
रमी, दशों दिशाओं की आशा तुझ में, 
अनंत रमी, इक यात्रा तुझ में,
हलाहल, जब तुम ये पी जाओगे,
कल्याण, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

नर-नारायण तुम ही,
दीन-हीन के, जन-नायक हो तुम ही,
हो अंधियारों में, लौ तुम ही,
काँटे जीवन के, जब बुन जाओगे,
पहचान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

सर्वगुण, सम्पन्न तुम,
फिर भी, हर दुख के हो आसन्न तुम,
कहाँ रह सके, अक्षुण्ण तुम!
इन पीड़ाओं को, जब हर जाओगे,
उन्वान, उसी दिन होगा तेरा,
खुद को, तब तुम,
मानव कहना!

जग जाएगी जब, सुसुप्त चेतना,
उत्थान, उसी दिन होगा तेरा,
तब, खुद को तुम,
मानव कहना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 19 January 2020

कवि-मन

श्रृंगार नही यह, किसी यौवन का,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!
पीड़-प्रसव है, उमरते मनोभावों का,
तड़पता, होगा कवि!
जब भाव वही, लिखता होगा!

हर युग में, कवि-मन, भींगा होगा,
करे चीर हरन, दुस्साशन,
युगबाला का हो, सम्मान हनन,
सीता हर ले जाए, वो कपटी रावण,
विलखता, होगा कवि!
जब पीड़ कोई, लिखता होगा!

खुद, रूप निखरते होंगे शब्दों के,
शब्द, न वो गिनता होगा, 
खिलता होगा, सरसों सा मन,
बरसों पहर, जब, बंजर रीता होगा,
विहँसता, होगा कवि!
जब प्रीत वही, लिखता होगा!

क्या, मोल लगाएँ, कवि मन का,
देखो उसकी, निश्छलता,
अनमोल हैं उनका, हर लेखन,
लिख-लिख कर, सुख पाता होगा,
रचयिता, होगा कवि!
निःस्वार्थ वही, लिखता होगा!

किसी यौवन का, ये श्रृंगार नहीं,
बनिए का, व्यापार नही,
उद्गार है ये, इक कवि-उर का!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Thursday, 17 October 2019

नैन किनारे

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

गम अगाध, तुम सह जाते थे,
बिन कुछ बोले, तुम रह जाते थे,
क्या, पीड़ पुरानी है कोई?
या, फिर बात रुहानी है कोई!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ उभरे हैं ये दो बूँद, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

अकारण ही, ये मेघ नहीं छाते,
ये सावन, बिन कारण कब आते,
बदली सी, छाई तो होगी!
मौसम की, रुसवाई तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
बह रहे बूँद बन धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

बगैर आग, ये धुआँ कब उभरे!
चराग बिन, कब काजल ये सँवरे!
कोई आग, जली तो होगी!
हृदय ने ताप, सही तो होगी!
कारण है, कोई ना कोई!
क्यूँ बहते हैं जल-धार, नैन किनारे!

अनुत्तरित ये प्रश्न, नैन किनारे!

इक तन्हाई सी थी, नैन किनारे,
मची है शोर ये कैसी, नैन किनारे,
हलचल, कोई तो होगी,
खलल, किसी ने डाली होगी,
कारण है, कोई ना कोई!
चुप-चुप रहते थे बूँदें, नैन किनारे!

उलझे ये दो बूँद तुम्हारे, नैन किनारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday, 16 September 2018

बह जाते हैं नीर

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

असह्य हुई, जब भी पीड़,
बंध तोड़ दे, जब मन का धीर,
नैनों से बह जाते हैं नीर,
बिन बोले, सब कुछ कह जाते हैं नीर...

नीर नहीं, ये है इक भाषा,
इक कूट शब्द, संकेत जरा सा,
सुख-दुख हो थोड़ा सा,
छलकते हैं, नैनों से बह जाते हैं नीर...

संयम, थोड़ा ना खुद पर,
ना धैर्य तनिक भी लम्हातों पर,
न जाने किन बातों पर,
जज्बातों में, बस यूँ बह जाते हैं नीर...

सम्भले ना, ये आँखों में,
तड़पाते हैं, आके तन्हा रातों में,
डूबोकर यूँ ख्यालों में,
किसी अंजान नगर, ले जाते हैं नीर...

भिगोते हैं भावों को नीर,
पिरोते है मन के भावों को नीर,
धोते हैं घावों को नीर,
बातों ही बातों में, भिगो जाते हैं नीर....

असह्य हुई, मन की पीड़,
बंध तोड़ रहे, अब मन का धीर,
बह चले अब नैनों से नीर,
कर संकेत, सब कुछ कह रहे हैं नीर...

जज्बातों में, बस यूँ ही बह जाते हैं नीर...

Friday, 31 August 2018

प्रतिश्राव

वही तार
संवेदना के
बार-बार
क्यूं?
छेड़ते हो तुम,
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
क्या!
इन आँखो में,
चाहते हो
देखना तुम...!

पीड़ा का
है ना
मुझको
तनिक भी भान,
मैं
गम से
हूँ बिल्कुल
अंजान,
दिखता हूँ
मैं जैसा,
तू वैसा ही
मुझको जान...

मुझ है
न कोई व्यथा,
न ही
दुख भरी
है मेरी
कोई भी कथा,
फिर
बार-बार
क्यूँ ?
पूछते हो
मुझसे
ये प्रश्न तुम,
जख्म
कोई नया,
क्यूँ ?
हरबार
कुरेदते हो तुम....!

छलक पड़ेंगी
अनायास ही
मेरी
ये आँखे
प्रतिश्राव होगा वह!
तुम्हारे ही,
स्नेह का,
इस प्यार में,
तुम्हारे प्रश्न ही
छलक कर
बह पड़ेंगे
मेरे अश्रुधार में....!

क्या यही?
चाहते हो तुम
क्यूँ?
अपनी ही
संवेदनाओं के
प्रतिश्राव
मेरी इन
आँखो में,
डालते हो तुम,
शायद!
चाहते हो
वही प्रतिश्राव
मेरी
कोमल से,
हृदय में,
देखना तुम...!

Wednesday, 6 April 2016

पिता

विलख रहा, पिता का विरक्त मन,
देख पुत्र की पीड़ा, व्यथा और जलन,
पुत्र एक ही, कुल में उस पिता के,
चोट असंख्य पुत्र ने, सहे जन्म से दर्द के।

सजा किस पाप की, मिली है उसे,
दूध के दाँत भी, निकले नही उस पुत्र के,
पिता उसका कौन? वो जानता नही!
दर्द उसके पीड़ की, पर जानता पिता वही।

दौड़ता वो पिता, उसके लिए गली गली,
साँस चैन की, पर उसे कहाँ मिली,
आस का दीप एक, जला था उस पुत्र से,
बुझने को अब दीप वो, बुझ रहा पिता वहीं।

Wednesday, 30 March 2016

बेजुबाँ हृदय

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

सुलगती रही आग सी हृदय के अंतस्थ,
तड़पती रही आस वो हृदय के अंतस्थ,
झुलसती रही उस ताप से हृदय के अंतस्थ,
दबी रही बात वो हृदय के अंतस्थ!

बेजुबाँ हृदय की भाषा कब समझ सके हैं सब!

धड़कनों की जुबाँ कहता रहा मूक हृदय सदा,
भाव धड़कनों की लब तक न वो ला सका,
पीड़ा उस हृदय की नैनों ने लेकिन सुन लिया,
बह चली धार नीर की उन नैनों से तब!

मूक हृदय की पीड़ा कभी कह नही पाए वो लब!

Sunday, 6 March 2016

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईनें में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
अमिट प्रीत की स्पष्ट हो रही वाणी अब।

Monday, 25 January 2016

व्यथा की कथा

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

व्यथा गहराती रोती चिल्लाती,
व्यथा कहती व्यथा ही रोती,
झांकती व्यथा चहुँ ओर फिर देखती,
हृदय के अन्तस्थ व्यथा सिमटती,
व्यथा व्यथित स्वयं में अकुलाती।

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

मन ही मन खुद घुटती व्यथा,
राह देखती संवेदनाओं का,
फिर स्वयं ही संकुचित होती व्यथा,
जग बैरी सदा व्यथा ही जनमता,
वेदना व्यथा की यहाँ कौन समझता।

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

कथा व्यथा की कितनी लम्बी,
व्यथा की वेदना व्यथा ही जानती,
परस्पर व्यथा एक दूजे से कहती,
दुनियाँ व्यथा की व्यथित क्यूँ रहती?
पीड़ा व्यथा के ही हदय क्युँ पलती?

व्यथा की भी अपनी ही करुण कथा!

छलके जो नीर

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

छलके जो नैनों से नीर,
सखी तू समझे न मन की पीड़,
तार तार बिखरा है मन का,
नीर बन मुख पे जो आ छलका,
नेह बैरी की बड़ी बेपीड़।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

भाव हृदय की वो न जाने,
मस्त मगन अपनी ही धुन पहचाने,
बुत पत्थर सा दिल उसका,
धड़कन की भाषा न जाने,
पोछे कौन अब नयनन के नीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

बह बह नीर ताल बन जाए,
भाषा नैनों की कोई उसको समझाए,
सखी काम तू ही मेरा ये कर दे,
पीड़ मेरी उस बैड़ी को कह दे,
बन जाऊँ मै उसकी हीर।

सखी! तू क्युँ न समझे मन की पीड़!

Wednesday, 20 January 2016

पीड़ा सृष्टि के कण-कण में

शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे,
पीड़ा असंख्य पल रहा सृष्टि के कण कण में!

हृदय कभी जलता धू धू रवि अनल सा,
तमता मानस पटल फिर भूतल तवा सा,
तब साँसे चलती जैसे सन सन पवन सी,
तन से पसीना बहता दुष्कर निर्झर सा।

पीड़ा अनेको पी गया समझ गरल जीवन में।

घनघोर वर्षा कर रहा क्रंदन गगन गर्जन ,
वज्र वर्जन से मची कोलाहल मन प्रांगण,
अँधेरी सियाह रात मौत सा छाया आंगन,
शीत प्रलय कर रहा थरथराता मानव मन।

भू से भिन्न पीड़ा का दूसरा ही लोक जीवन में,
शशि प्रखर फिर भी कहीं आलोक नही है उनमे।

Tuesday, 19 January 2016

पनिहारिन की पीड़ा

इक भोली विरहन पनिहारिन,
पनघट तट पनिया भरन के बहाने,
कहती पीड़ा अपने मन की।

आयो नाही अबकी बरस अब तक पिया,
बितत ना बिताई अब दिन रतिया, 
कासे कहुँ पीड़ा अब मन की।

बबलु मुनिया के समझाऊँ दिन रतिया,
बाबुजी गइल विदेश हे बचवा,
व्यथा बचल बस अब मन की।

सास ससुर भइले अब बिलकुल अक्षम,
सुझत नही अब कुछ अँखियाँ,
बोझ बहुत बढ़ गईल जीवन की।

अबकी बरस जल्दी आ जा पिया जी,
पनिहारिन के तनिक समझी व्यथा,
साथ निभा जा अब आंगन की।

Friday, 15 January 2016

हिरण सा मन

हिरन सा चंचल मन कैद में विवश,
कुटिल शिकारी के जाल फसा मोहवश,
कुलाँचे भर लेने को उत्तेजित टांगें,
चाहे तोड़ देना मोहबंधन के जाल बस।

फेके आखेटक ने मोह के कई वाण,
चंचल मन भूल वश ले फसता जान,
मन में उठती पीड़ा पश्चाताप के तब,
जाल मोहमाया का क्युँ आया न समझ।

छटपटाते प्राण उसके हो आकुल,
मोहपाश क्युँ बंधा सोचे हो व्याकुल,
स्वतंत्र विचरण को आत्मा पुकारती,
धिक्कारती खुद को हिरण ग्लानि वश।

Wednesday, 6 January 2016

तू स्वयं का विधाता

वो दूर से खामोशियों की सदाएँ दे रहा कौन?
मुझको करने दे जरा आराम तू।
व्योम को जख्मों के नासूर दिखा रहा है कौन?
सृष्टि को करने दे जरा आराम तू।
चुप रहकर वसुधा को मन की व्यथा कह रहा कौन?
वसुधा को करने दे जरा आराम तू।

तू है भी कौन ? 
तू इतना महत्वपूर्ण नहीं!
तेरी सुननेवाला यहाँ कोई नही!
सब की अपनी कथा सबकी पीड़ा!
सब अपनी व्यथा से है व्यथित!
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

अपनी खामोशी, जख्म, मन की व्यथा,
सारे गम तुझे खुद ही होंगे झेलना,
इस भव-सागर में तुझे स्वयं है तैरना।

तू ही अपनी सृष्टि का पालक,
तू ही अपनी वसुधा का रक्षक,
तु ही है स्वयम् का नियोक्ता,
तू ही खुद का विधाता, कर जरा सा काम तू।
सब है यहाँ थके हुए, करने दे इन्हे विश्राम तू।

Friday, 1 January 2016

एक बार जो कह दे तू!

एक बार जो कह दे तू!
आसमानों के मध्य आकर,
बादल वही पर ठहर जाएंगे।

एक बार जो कह दे तू!
विरानों के सीने मे जाकर,
कोलाहल से ये भर जाएंगे।

एक बार जो कह दे तू!
इन बागों के समीप जाकर,
फूल भी खिलना भूल जाएंगे।

एक बार जो कह दे तू!
ब्रम्हांड के कहकहों में आकर,
भूमण्डल वहीं पर ठहर जाएंगे।

तू कहता क्यूँ नही कुछ?
क्या तेरे कण्ठ अवरुद्ध है?
तू कह दे तो मनप्राण खिल जाएंगे।

Tuesday, 29 December 2015

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

एकाकीपन का सघन विराना,
घेरे जीवन को अनन्त सुदूर तक,
सूनेपन के कोलाहल से मन व्यथित अबतक,
हृदयदल को छू गई इक रश्मिकण,
पर किसने इस रश्मिकण को भरमाया ।

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

हृदय मे बजने लगी थी मृदंग रागिणी,
हवाओं मे घुलने लगी थी खुशबु भीनी,
अन्तर्मन के विरानो में फैली थी चाँदनी,
स्वप्निल फुलझड़ियाँ फूट परे थे उस क्षण,
पर किसने इस क्षण को भरमाया!

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

एकाकीपन उसने तोड़ा था,
व्यथित मन को दी थी इक आशा,
सपन सुनहला जन्मा था आँखों,
सुख की घड़ियों को मैने पहजाना था,
पर किसने इन घड़ियों को भरमाया ।

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

रहने दो तुम मत दो आस

रहने दो तुम.....!
अब मत करो बात।
भूल जाओ,
अब मत दो आस।
तुम्हारे होंगे असंखय दोस्त,
मिटती होगी जिनसे
तेरी प्यास,
मेरी तो बस एक ही आस,
ला सकता था जो मधुमास,
स्मृति से तेरे हुआ मैं विस्मृत,
बस अब तो,
छोड़ चला हूँ आस।
न मिट सकेगी अब,
इस मन की प्यास।
रहने दो तुम....!
भूल जाओ, मत दो आस,
रहने दो तुम.....!
मत करो बात।
गुजरा हुआ वक्त हूँ मैं,
लौट नही फिर आउँगा,
यादों मे रह जाऊँगा साथ,
रहने दो तुम.....!

मेरा एकाकीपन

मैं अकेला,
अग्यात् रश्मिकण,
जीवन की सांध्य वेला।

मेरा एकाकीपन
देकर स्नेह चुंबन,
बांधती जाती मुझे अकेला।

पी गया मैं
गरल जीवन का,
समझ मधुघट अलबेला।

अतृप्त अन्तर्मन

अतृप्ति कितना अन्तर्मन में,
विह्वल प्राण आकुल तन में,
पीड़ा उठते असंख्य प्रतिक्षण में,
अतृप्त कई अरमान जीवन में।

मधु चाहता पीना ये हर क्षण,
अगणित मधु प्यालों के संग,
चाहे मादकता के कण-कण,
आह! अतृप्त कितना है जीवन।

असंख्य मधु-प्याले पीकर भी,
बुझ पाती नही मन की प्यास,
शायद तृप्ति ही है यह क्षणिक,
आह! अतृप्ति अटल अन्तर्मन में।

Monday, 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।