Showing posts with label माता. Show all posts
Showing posts with label माता. Show all posts

Monday, 13 November 2017

माँ, बेटा और प्रश्न

माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

निरुत्तर माता, कुछ पल को चुप होती,
मुस्कुराकुर फिर, नन्हे को गोद में भर लेती,
चूमती, सहलाती, बातों से बहलाती,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

माँ, विह्वल सी हो उठती जज्बातों से,
माँ का मन, कहाँ ऊबता नन्हे की बातों से?
हँसती, फिर गढ़ती इक नई कहानी,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

बार-बार वही प्रश्न फिर दोहराता नन्हा,
धैर्य पूर्वक माता कहती फिर कुछ अनकहा,
परत दर परत सुलझाती जिज्ञासा,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

धैर्य, शौर्य, दया, ज्ञान सब माँ से पाया,
बड़ा हुआ नन्हा, उसने माँ को ही रुलाया!
तपती धूप में ममता की वो छाया,
माँ से फिर पूछता नन्हा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

पोंछ लेती वो आँसू, आँचल में छुपकर,
सो जाती बिन खाए, किसी कोने में रहकर,
डर जाती बेटे की आहट सुनकर,
माँ से फिर पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

अब माँ को बस सर्वदा चुप ही रहना था,
खामोशी ही उसका गहना था,
गाढ़ी नींद में उसे जो अब सोना था,
माँ से क्या पूछता बेटा "क्या हुआ फिर उसके बाद?"

Friday, 25 March 2016

विह्वल भाव

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल इस मन में...,!

कुछ भाव सरल भाषाविहीन, कुछ जटिल अंतहीन,
कुछ उद्वेलित घन जैसे व्यक्त अन्तःमानस में आसन्न,
कुछ हृदय में हरपल घुलते, कुछ अव्यक्त अन्त:स्थ मौन!

भाव पनपते भावनाओं से, भावना वातावरण से,
संग्यांहीन, संग्यांशून्य, निरापद भाव कुछ मेरे मन के,
मैं प्रेमी जीवन के हर शय का प्रेम ही दिखता हर मन में,

भिन्नता क्युँ भावों में इतनी मानव मन क्युँ विभिन्न,
रिक्तता तो है अंग जीवन का भाव क्युँ हुए दिशाविहीन,
कभी तैरती भावों मे विह्वलता कभी कभी ये मतिविहीन।

विह्वलता सुन्दरतम भाव मन की अभिव्यक्ति का,
माता हो जाती विह्वल पुत्र के निष्कपट भाव देखकर,
हृदय पुत्र का हो जाता विह्वल माँ की छलके नीर देखकर।

हृदय दुल्हन का विह्वल बाबुल का आँगन छोड़कर,
विदाई के क्षण नैन असंख्य विह्लल आँसूओं में डूबकर,
पत्थर हृदय पिता हो जाता विह्वल बेटी के आँसू देखकर।

भाव कितने ही प्रष्फुटित होते हर पल मन में...,!
कैद कर लेना चाहता विह्वल भावों को मैं "जीवन कलश" में.!

Monday, 21 March 2016

माँ का पुत्र विछोह

रुकी हुई सांसें उसकी फिर से कब चल पड़ी पता नहीं?

जीर्ण हो चुकी थी वो जर्जर सी काया,
झुर्रियाँ की कतारें उभर आईं थी चेहरे पर,
एकटक ताकती कहीं वो पथराई सी आँखें,
संग्याहीन हो चुकी थी उसकी संवेदनाएँ,
साँसों के ज्वार अब थमने से लगे थे उसके,
जम सी रही थी रक्त धमनियों मे रुककर।

ऐसा हो भी तो क्युँ न.............!
नन्हा सा पुत्र बिछड़ चुका था गोद से उस माता की!

सहन कहाँ कर पाई विछोह अपने पुत्र की,
विछोह की पीड़ा हृदय मे जलती रही ज्वाला सी,
इंतजार में उसके बस खुली थी उसकी आँखें,
बुदबुगाते थे लब रुक-रुक कर बस नाम एक ही,
विश्वास उस हृदय में थी उसके लौट आनेे की।

ऐसा ही होता है माँ का हृदय..........!
ममत्व उस माँ की अब तक दबी थी उस आँचल ही!

ईश्ववर द्रविभूत हुए उस माता की विलाप सुनकर,
एक दिन लौट आया वही पुत्र माँ-माँ कहकर,
आँखों मे चमक वही वापस लौट आई फिर उसकी,,
नए स्वर मे फिर उभरने लगे संवेदनाओं के ज्वर,
आँचल में दबा ममत्व फूट पड़ा था अपने पुत्र पर।

रुकी हुई साँसें उसकी फिर से कब चल पड़ी पता नहीं?

Tuesday, 15 March 2016

हे माता! कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही

हे माता! तुम ही रश्मिप्रभा, तुम मरीचि मेरी।

तुम वसुंधरा, तुम अचला, तुम ही रत्नगर्भा,
तुम वाणीश्वरी, तुम शारदा,महाश्वेता तुम ही,
तुम ही ऋतुराज, कुसुमाकर, तुम मधुऋतु,
धनप्रिया, चपला, इन्द्रवज्र दामिनी तुम ही।

रेत, सैकत हम कल्पतरू परिजात तुम ही।

तुम ही नियति, विधि, भाग्य, प्रारब्ध तुम ही,
तुम कमला, तुम पद्मा, रमा हरिप्रिया तुम ही,
तुम हो मोक्ष, मुक्ति, परधाम, अपवर्ग तुम ही,
तुम हो जननी, जनयत्री, अम्बाशम्भु तुम ही।

तुम रम्य, चारू, मंजुल, मनोहर, सुन्दर तुम ही,
पुष्प, सुमन, कुसुम, मंजरी अर्पित तुम पर ही।

Tuesday, 8 March 2016

स्त्री जगत जननी

मन आज सोच रहा मेरा.....!

श्रृष्टि का आरंभ क्या स्त्री से हुआ?
जन्म देने की शक्ति सिर्फ स्त्री को ही क्यूँ?
जगत -जननी स्त्री ही क्यूँ....?
दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, काली सारी स्त्री क्यूँ?

अनेकों प्रश्न उठ रहे मन में आज....!

स्त्री ही तो है जग की शक्ति स्वरूपा,
सुन्दरता की असीम पराकाष्ठा और अधिष्ठाता,
पूर्ण ममता और स्नेह का मूर्त स्वरूप,
जगत को प्रथम दुग्ध पान से सीचने वाली!

फिर यह विवाद क्यूँ, दिवस विशेष यह क्यूँ?

नाभि मे नारी के पलती है दुनियाँ,
कोख नारी की ही प्रथम पाती ये दुनियाँ,
छुपने को माता का आँचल ही यहाँ,
अस्तित्व पुरुष का जग में नगन्य नारी बिना।

किसी क्षण नारी का अपमान करती क्युँ दुनियाँ?

भटके हैं क्या कुछ कन्याओं के स्वर भी?
कैकैयी, मंथरा, मंदोदरी, अप्सराएँ भी महिला ही,
फिसले थे कुछ कदम कुल पल इनके भी,
सृष्टि की विविधताओं का इक रूप है यह भी!

नारी तो है अधिष्ठाता शक्ति, प्रभुसत्ता, सम्मान की!

सत्य, शिव और सुन्दर जग में माता ही,
स्त्री रूप मे ईश्वर नें जग मे जना इनको ही,
लटों में इनके ही गंगा और गंगोत्री भी,
धरा के विविध स्वरूप की अलौकिक निधि स्त्री ही!

मन आज सोच रहा मेरा ........!

Saturday, 9 January 2016

ममता

ममता माता के कोख से जन्मी,
प्रसव पीड़ा संग उर लहलहाई,
नवजीवन के आहट संग उपजी,
वात्सल्य के आँसू बन बिखरी।

भाव दुलार मधुर वात्सल्य ,
मिलते ममता की गाँव में,
लालन पालन लाड़ प्यार,
सब ममता की छाँव में।

फलिभूत होता जीवन कण,
सुरभित ममता के अाँचल संग,
ममता वसुधा के कण-कण,
पुचकारती जनजन के मन।

सुख कल्पना नहीं ममता बिन,
राग विहाग नही ममता बिन,
नित सू्र्यालाप नही ममता बिन,
सृष्टि अधूरी ममता बिन।