Thursday 25 August 2016

क्षण भर को रुक

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को ऐ जिन्दगी पहलू में आ मेरे,
सँवार दूँ मैं उन गेसुओं को बिखरे से जो हैं पड़े,
फूलों की महक उन गेसुओं मे डाल दूँ,
उलझी सी तू हैं क्यूँ? इन्हें लटों का नाम दूँ,
उमरते बादलों सी कसक इनमें डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

क्षण भर को रुक जा ऐ जिन्दगी,
तेरी पाँवों में गीत भरे पायल मैं बाँध दूँ,
घुघरुओं की खनकती गूँज, तेरे साँसों में डाल दूँ,
चुप सी तू है क्युँ? लोच को मैं तेरी आवाज दूँ,
आरोह के ये सुर, तेरे नग्मों मे डाल दूँ.....

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

रुक जा ऐ जिन्दगी क्षण भर ही सही,
आईना तू देख ले, शक्ल तेरी तुझ सी है या नहीं,
मोहिनी शक्ल तेरी, आ इसे शृंगार दूँ,
बिखरी सी तू है क्यूँ? आ दुल्हन सा तुझे सँवार दूँ,
धड़कन बने तू मेरी, आ तुझको इतना प्यार दूँ...

रुक जा ऐ जिन्दगी, जरा क्षण भर को पास तू .......

मुकम्मल मुकाम

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

गुजरे हैं कई मुकाम इस जिन्दगी की पास से,
देखता हूँ मुड़कर मुकाम थी वो कौन सी,
साथ जब तलक रही अजनवी सी वो लगती रही,
अब दूर है वो कितनी मुकाम थी जो खास सी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

रफ्ता-रफ्ता उम्र ये, फिसलती गई इन हाथों से,
वक्त बड़ा ये बेरहम, जो छल गई मुकाम पे,
गैरों की इस भीड़ में, अंजाने हुए हम अपने आप से,
धूँध आँखों में लिए मुकाम तलाशती ये जिन्दगी,

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

हाथ आए ना वापस, गुजरे हैं जो मुकाम, पास से,
अब समेटता हूँ मैं, गुजरते लम्हों को हाथ से,
गाता हूँ फिर वो नग्मा, जब गुजरता हूँ मुकाम से,
तसल्ली क्या दिल को देगी, इस मुकाम पर जिन्दगी?

न जाने किस मुकाम पे, मुकम्मल होगी ये जिन्दगी?

Tuesday 23 August 2016

यकीन की हदों के उस पार

यकीन की हदों के उस पार.....

दोरुखें जीवन के रास्ते, यकीन जाए तो किधर,
कुछ पल चला था वो, साथ मेरे मगर,
अब बदलते से रास्तों में छूटा है यकीन पीछे,
भरम था वो मेरे मन का, चलता वो साथ कैसे,
हाँ भटकती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

दूसरा ही रुख जिन्दगी का यकीन के उस पार,
टूटते हैं जहाँ, सपनों के विश्वास की दीवार,
रंगतें चेहरों के बिखर कर मिटते हैं जहाँ,
शर्मशार होता है यकीन, खुद अपनी अक्श से ही,
हाँ बिलखती यकीन कितनी? हदों के उस पार......

हदें यकीन की हैं कितनी छोटी,
बढ़ते कदम जिन्दगी के, आ पहुँचे हैं यकीन के पार,
भीगी सी अब हैं आँखें, न ही यकीं पे एतबार,
बेमानी से पलते रिश्ते, झूठा सा है सबका प्यार,
हाँ छोटी सी है यकीन कितनी? हदों के उस पार......

Wednesday 17 August 2016

पहर दो पहर

पहर दो पहर,
हँस कर कभी, मुझसे मिल ए मेरे रहगुजर,
आ मिल ले गले, तू रंजो गम भूलकर,
धुंधली सी हैं ये राहें, आए न कुछ भी नजर,
आ अब सुधि मेरी भी ले, इन राहों से भी तू गुजर....

पहर दो पहर,
चुभते हैं शूल से मुझको, ये रास्तों के कंकड़,
तीर विरह के, हँसते हैं मुझकों बींधकर,
ये साँझ के साये, लौट जाते हैं मुझको डसकर,
ऐ मेरे रहगुजर, विरह की इस घड़ी का तू अन्त कर......

पहर दो पहर,
कहती हैं ये हवाएँ, आती हैं जो उनसे मिलकर,
है बेकरार तू कितना, वो तो है तुझसे बेखबर,
आँखों में उनके सपने, तू उन सपनों से आ मिलकर,
ए मेरे रहगुजर, उन सपनों से न कर मुझको बेखबर.....

पहर दो पहर,
लौट जाती हैं उनकी यादें, कई याद उनके देकर,
बंध जाता है फिर ये मन, उन यादों में डूबकर,
रोज मिलता हूँ उनसे, यादों की वादी में आकर,
ऐ मेरे रहगुजर, इन यादों से वापस न जा तू लौटकर....

Sunday 14 August 2016

तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,
चाहत के गहरे सागर में डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम उन रंगों में,
हरे रंग तुम लेकर आना सावन के,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,
घर की दीवारों पर सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,
दिल की आसमाँ पर लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

Friday 12 August 2016

रुकी सी प्रहर

रुकी सी प्रहर, रुकी सी साँसें इस पल की.....

अवरुद्ध हुए प्राणों के अारोह,
अवरोह ये कैसी आई इस जीवन की,
रुकी है क्युँ सुरमई सी वो लय?
रुकी है संगीत, रुके हैं गीत मन के हलचल की....,

रुकी सी लहर, रुकी सी गर्जन इस सागर की.....

कंपित प्राणों के सुर थे उस पल में,
गतिशील कई आशाएँ थी इस जीवन की,
झरणों सा संगीत था उस लहर में,
रुकी है प्रहर, रुके हैं गुंजित स्वर उस कोयल की...

रुकी सी स्वर, रुकी सी गायन इस जीवन की....

गीत कोई आशा के तुम फिर गा दो,
प्राणों के अवरोह को अब इक नई दिशा दो,
अवरोह का ये प्रहर लगे आरोह सा,
रुकी हैं रुधिर, रुके हैं नसों में लहु ठहरी जल सी...

रुकी सी प्रहर, रुकी सी साँसें इस पल की.....

Thursday 11 August 2016

नर्म घास की फर्श पर

नर्म घास की फर्श पर, पल जीवन के मिल गए.....

ओस की बूँदों से लदी हरी सी घास वो,
दामन वादी में फैलाए बुलाती पल-पल पास वो,
कोमल स्पर्शों से दिलाती अपनत्व का आभाष वो,
इशारों से मन को हरती लगती खास वो,
इनकी विशाल सी बाहें, मन के प्रस्तर को हर गए....,

आकर्षित हो कुछ पल जो बैठा पास मैं,
बँध सा गया मन नर्म घास की हरी सी पाश में,
बूंदो से फिर मुझको नहलाया हरी सी घास ने,
रस करुणा का पिलवाया उसके एहसास ने,
आलिंगन उसकी बाहों के फिर तन को मिल गए.....

मूक भाषा में अपनी, बातें कितनी वो कह गई,
कह सके न लब जिसे, उन लफ्जों से मन को छू गई,
दे न सका जिसे अबतक कोई, राहत ऐसी दे गई,
भीनी सी खुशबु इनकी, एहसास नई सी दे गई,
अन्जाना था उससे मैं, रिश्ते जन्मों के अब जुड़ गए....

अनबोले बोलों में उसकी, पल जीवन के मिल गए....