Wednesday 28 November 2018

अजीब से फासले

बड़े अजीब से, हैं ये फासले....

इन दूरियों के दरमियाँ,
जतन से कहीं, 
न जाने कैसे, मन को कोई बांध ले..

अजीब से हैं ये फासले....

अदृश्य सा डोर कोई,
बंधा सा कहीं, 
उलझाए, ये कस ले गिरह बांध ले...

अजीब से हैं ये फासले....

जब तलक हैं करीबियाँ,
बेपरवाह कहीं,
याद आते हैं वही, जब हों फासले...

अजीब से हैं ये फासले....

सिमट आती है ये दूरियाँ,
पलभर में वहीं,
इन फासलों से जब, कोई नाम ले...

अजीब से हैं ये फासले....

फिर गूंजती है प्रतिध्वनि,
वादियों में कहीं,
दबी जुबाँ भी कोई, गर पुकार ले ....

अजीब से हैं ये फासले....

पैगाम ले आती है हवाएँ,
दिशाओं से कहीं,
इक तरफा स्नेह, फासलों में पले....

अजीब से हैं ये फासले....

इक अधूरा कोई संवाद,
एकांत में कहीं,
खुद ही मन, अपने आप से करे...

अजीब से हैं ये फासले....

Monday 26 November 2018

अस्ताचल

ऐ मन चंचल! अवश्यम्भावी है अस्ताचल!
पर धीरज रख, रश्मि-रथ फिर लौट आएगी कल....

कर, तू जितनी मर्जी चल,
आवरण, तू चाहे जितने भी बदल,
दिशा, तू चाहे कोई भी निकल!
मचल! मेरे मन, तू और जरा मचल!
निश्चय है अस्ताचल!

उद्दीप्त होते सूरज को देखो,
प्रचण्ड होती, किरणों को परखो,
प्रभा, इनके भी होते निर्बल!
अस्तगामी है सब, अस्त हुए ये चल,
निश्चय है अस्ताचल!

पर संयम रख, अरुणोदय फिर भी होगा कल....

उद्दीप्त होते ये प्रभा किरण! 
ये प्रदीप्त राहें, आभाएं है अस्तगामी,
गतिशील क्षण, गतिमान हर-पल!
यह ज्वलंत वर्तमान, भूतकाल है कल,
निश्चय है अस्ताचल!

पर संयम रख, वर्तमान फिर से आएगा कल....

बस, ये मन में ध्यान रहे,
शीघ्रता में, तेरे ये कदम ना डिगें,
गिर, फिर उठ कर तू सम्हल!
ये आशा, ये सपने, ये लक्ष्य ना बदल!
आए चाहे अस्ताचल!

चलना ही है, इस जीवन का हल,
या समाप्त हो जाएँ ये राहें, 
या प्रभाविहीन हो जाए ये आभाएं,
ऊषा-किरण, फिर लौट आएगी कल!
आने दो ये अस्ताचल!

ऐ मन चंचल! अवश्यम्भावी है अस्ताचल!
पर धीरज रख, रश्मि-रथ फिर लौट आएगी कल....

Saturday 24 November 2018

25 वर्ष: संग मद्धम-मद्धम

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण...

हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

++++++++++++++++++++++++++++++++++++
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

Thursday 22 November 2018

कहें-न-कहें

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

तन्हा इक पल भी, न होने देंगे तुम्हे,
निश्छल से ये झर-झर झरने.....
कल-कल से बहते ये क्षण, 
अनसुने से ये गीत, अनकहे से ये संगीत,
तुम सुन लेना....

पत्तियों पर अटकी, ओस की ये बूँदें,
समीर के ये पुरकशिश झोंके....
सहला जाएंगे हौले से तन,
अन्जाने से ये अनुभव, अनबुझ से ये रंग,
तुम समेट लेना...

गिरि पर टूटकर, बिखरती ये किरणें,
पर्वत के रंगीले शिखर सुनहरे...
नृत्य नाद करती ये किरण,
अनदेखी सी ये तस्वीर, अनदेखे ये नृत्य,
तुम देख लेना.....

कब तक है भला, साँसों का ये छंद,
पर जब तक चलते है पवन....
गुजरेंगे, छूकर ही ये तन,
अनदेखी ये छुअन, अनछूए से एहसास,
तुम जान लेना....

कुछ कहें, न कहें हम,
या, कुछ लिखें, न लिखें हम,
अनबोले से ये बोल, अनलिखे से ये शब्द,
तुम पढ़ लेना....

Tuesday 20 November 2018

सांध्य-स्वप्न

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न!

अक्सर ही, ये सांध्य-स्वप्न!
अनाहूत आ जाए,
बातें कितनी ही, अनथक बतियाए,
बिन मुँह खोले,
मन ही मन, भन-भन-भन...

छलावे सा, ये सांध्य-स्वप्न!
छल कर जाए,
हर-क्षण, भ्रम-जाल कोई रच जाए,
बिन घुंघरू के,
पायल बाजे, छन-छन-छन......

पलकों में, ये सांध्य-स्वप्न!
नमी बन आए,
अधूरे ख्वाब कई, फिर से दिखलाए,
बिन सावन के,
बदरा गरजे, घन-घन-घन....

बेचैन करे, ये सांध्य-स्वप्न!
छम से आ जाए,
अद्भुद दृश्य, पटल पर रखता जाए,
बिन मंदिर के,
घंटी बाजे, टन-टन-टन......

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न! 

Sunday 18 November 2018

सुरभि

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

मुखरित, हुए फिर वो वादे,
वो चटक रंग, वो चेहरे, वो रूप सीधे-सादे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन खुले पन्नों से.....

महक उठे हैं, फिर वो छंद,
बनते-बिगड़ते, नए-पुराने से कई अनुबंध,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन भूले लम्हों से....

मन की लिप्सा, जागी फिर,
अँकुर आए, फिर आँखों में चाह अनगिन,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन गुजरे राहों से....

तंद्रा टूटी, इक बूँद से जैसे,
सूखी नदिया की, प्यास जगी है कुछ ऐसे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन नन्हीं बूंदों से....

कुछ भूले, कुछ याद से रहे,
कुछ वादे, दबकर किताबों में गुलाब से रहे,
सुरभि, लौट आई है फिर वही,
उन सूखे फूलों से....

Saturday 17 November 2018

दो प्रस्तावना

दो स्वरूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

कामना के कई रंग देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूंकि, कल्पना से सर्वथा परे,
बिल्कुल अलग-अलग,
दो विपरीत कलाएँ, रचता है ईश्वर!

बसंत ही बसंत
या है पतझड़ ही पतझड़,
हरितिमा अनंत है
या है बंजर ही बंजर,
दो रूप जीवन के, रचता है ईश्वर!

चुप ही चुप,
या कंठ में स्वर ही स्वर,
है सुर-विहीन,
या है सुर के सातों स्वर,
दो धुन जीवन के, रचता है ईश्वर!

अभिलाषा मन में देकर,
वो हँसता है ऊपर,
क्यूँकि, चाहत से सर्वथा परे,
कथाएं अलग-अलग,
दो भिन्न प्रस्तावना, रखता है ईश्वर!

चुनने को मार्ग सही, कहता है ईश्वर!