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Tuesday, 20 November 2018

सांध्य-स्वप्न

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न!

अक्सर ही, ये सांध्य-स्वप्न!
अनाहूत आ जाए,
बातें कितनी ही, अनथक बतियाए,
बिन मुँह खोले,
मन ही मन, भन-भन-भन...

छलावे सा, ये सांध्य-स्वप्न!
छल कर जाए,
हर-क्षण, भ्रम-जाल कोई रच जाए,
बिन घुंघरू के,
पायल बाजे, छन-छन-छन......

पलकों में, ये सांध्य-स्वप्न!
नमी बन आए,
अधूरे ख्वाब कई, फिर से दिखलाए,
बिन सावन के,
बदरा गरजे, घन-घन-घन....

बेचैन करे, ये सांध्य-स्वप्न!
छम से आ जाए,
अद्भुद दृश्य, पटल पर रखता जाए,
बिन मंदिर के,
घंटी बाजे, टन-टन-टन......

नित आए, पलकों के द्वारे, सांध्य-स्वप्न! 

Wednesday, 7 February 2018

कुछ ऐसा ही है जीवन

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ अनाहूत ही आ जाना,
बिन कुछ कहे यूँ ही चल देना,
भीगी पलकों से बस यूँ रो लेना,
यूँ एकटक क्षितिज देखना,
मनमाना बेगाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

बूंदों की भीगी सी लड़ियाँ,
भीगी गुलाब की ये पंखुड़ियाँ,
क्षण-क्षण यूँ खिलती ये कलियाँ,
रंगरूप बदलती ये दुनियाँ,
जाना पहचाना सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

यूँ खिल कर हँसते गुलाब,
यूँ हिल कर भीगते बेहिसाब,
फिर टूट बिखरते इनके ख्वाब,
यूँ ही माटी में मिलना,
पाकर खो जाने सा ये जीवन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....

दामन में कुछ भीगे से गुलाब,
कांटों में उलझा बेपरवाह सा मन,
कुछ ऐसा ही है जीवन.....