सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!
हो पास, जैसे कोई परछाईं,
किरण कोई, छांव लेकर हो आई,
छुईमुई, छूते ही सरमाई,
अपनत्व ये, सच सा लगे कितना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!
बिना बोले , ये कैसा वादा?
करे यकीं, कोई हद से भी ज्यादा,
करे बेशर्त, कोई समर्पण,
अर्पण करे, अन्तस्थ की भावना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!
खींच ले, कोई अपनी ओर,
यूं कहीं बांध ले, पतंगों सा डोर,
उलझाए, धागों सा मन,
पर आसां कहां, वो डोर थामना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!
अपरिचित से इक परिचय,
छुपा, निरर्थक बातों में आशय,
यूं ढूंढता, बातों में सार,
ज्यूं, शब्दों नें गढ़ी कोई अल्पना,
सच ही कहता था आईना....
कितना वो अंजाना!
सच ही कहता था आईना....
करीब होकर भी, कितना वो अंजाना!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 13 दिसम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार
Deleteबहुत सुन्दर ! आइना तो सिर्फ़ सूरत दिखाता है, सीरत नहीं !
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteवाह.... बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteभवपूर्ण अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteआईने से कोई सच्चाई छिपी नहीं है कभी।सुन्दर भावाभिव्यक्ति आदरणीय पुरुषोत्तम जी।बधाई स्वीकार करें 🙏
ReplyDeleteहार्दिक आभार
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