कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!
कुछ आशा,
कुछ निराशा के, ये कैसे पल!
बस होनी है, इक,
या आवागमन, या कोई घटना,
कुछ घटित, कुछ अघटित,
हो जाए समक्ष,
या परोक्ष!
कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!
टलता कब,
सहारे उस रब के, रहता सब,
ये उम्र, ढ़ले कब,
घेरे सांसों के, जाने टूटे कब!
और मोह रुलाए पग-पग,
परे, जीवन के,
दूजा पक्ष!
कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!
सजग निशा,
सुलग-सुलग, बुझ जाती उषा,
यूं चलता ही जाए,
निरंतर काल-चक्र का पहिया,
उस ओर, जहां है क्षितिज,
या, अंतिम इक,
काल-कक्ष!
कसता ही जाए, इक आगोश,
मृत्यु या मोक्ष!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
Bahut sunder
ReplyDelete