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Tuesday 8 March 2016

ऩारी: ईश्वर का एक एहसास

एहसास खूबसूरती का जब ईश्वर को हुआ,
श्रृष्टि निर्माता ने तब ही जन्म स्त्री को दिया।

इक एहसास कोमलता का जब हुआ होगा,
तब  उसने स्त्री का कोमल हृदय रचा होगा।

जग के भूख प्यास की जब हुई होगी चिन्ता,
तब उसने माता के आँचल में दूध भरा होगा।

जब एहसास कोमल भाव की मन में जागी,
ममत्व, स्त्रीत्व, वात्सल्य तब नारी को दिया।

धैर्य, संकल्प, सहनशीलता, भंडार ग्यान का,
सम्पूर्ण रूपेण नारी को उसने दे दिया होगा।

चाँदनी का घमंड तोड़ने को ही शायद उसने,
अकथनीय अवर्णनीय सुन्दरता नारी को दी।

सुन्दरता को परिभाषित करते करते उसने,
नारी रूप की परिकल्पना कर डाली होगी।

पुरुष वर्ग जन्मों से याचक नारी ममत्व का,
नारी बिन अस्तित्व नही कही पुरुष वर्ग का।

Friday 29 January 2016

ईश्वर विनती

हे ईश्वर, मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!
हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!

स्वर्गिक स्पर्शो का मै अनुरागी,
हर्ष विमर्शों का मैं प्रेमी,
मधुर स्मृतियों की क्षण का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस इतनी चाह मेरी पूरी कर!

उज्जवल क्षण का अभिलाषी,
निश्चल अंतर्हृदय का वासी,
महत् कर्म मधुरगंध का मैं याचक।

हे ईश्वर, बस मेरी वीणा को तू स्वर दे!

चमकीले आडंबर का बैरागी,
नैसर्गिक धन का मैं प्रेमी,
अंतर के स्वर वीणा का मैं वादक।

हे ईश्वर, बस विनती तू मेरी सुन ले!
हे ईश्वर, बस मेरी इतनी अभिलाषा पूरित कर!

Tuesday 5 January 2016

तू रहता कहाँ?

आकाश और सागर के मध्य,
क्षितिज के उस पार कहीं दूर,
जहाँ मिल जाती होंगी सारी राहें,
खुल जाते होंगे द्वार सारे मौन के,
क्या तू रहता है दूर वहीं कही?

क्षितिज के पार गगन मे उद्भित,
ब्रम्हांड के दूसरे क्षोर पर उद्धृत,
शांत सा सन्नाटा जहां है छाता,
मिट जाती जहां जीवन की तृष्णा,
क्या तू रहता क्षितिज के पार वहीं?

कोई कहता तू घट-घट बसता,
हर जीवन हर निर्जीव मे रहता,
कण कण मे रम तू ही गति देता,
क्षितिज, ब्रह्मान्ड को तू ही रचता,
मैं कैसे विश्वासुँ तू हैं यहीं कहीं?

Sunday 3 January 2016

पराशक्ति ईश्वर से

प्राण बसते उस सूक्ष्म पराशक्ति में,
रमता है जो घट-घट मे,
वो आँसूओं में वो क्रंदन में,
वेदनाओं मे निराशाओं मे,
सन्नाटों के घन आहटों मे,
रमता वो हिम के वियावानों में,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।

तेरे बगैर आँसुओं के मौन,
वेदनाओं के करुण क्रन्दन,
निराशाओं के घनघोर घन,
आहटों के प्रतिपल तेज चरण,
साए चुपचाप, प्रतिविम्ब मौन,
सन्नाटों के क्षण व्याकुल मन,
वेदना तुम झेलो तभी तुम्हे मानूँ।

जग की तुम संताप हर लो,
वेदना जन-जन की ले लो,
आशाओं की नव रश्मि दो,
प्रतिविम्ब को विम्बित कर दो,
मौन को स्वर साधना दे दो,
ब्रहमांड में तुम हुंकार भर दो,
पीड़ा जग की हरो तभी तुम्हे मानूँ।

तुम अगम तुम अगोचर,
विराट तुम पर अन्तर्धान,
मैं तुच्छ तुझे कैसे पहचानूँ,
दृष्टि है पर तू नही दृष्टिगोचर,
महादृष्टि दो तुझे देख पाऊँ,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
जग के संताप हरो तभी तुम्हे सम्मानूँ।

Friday 1 January 2016

पंथ महानिर्वाण का

उत्कर्ष के हों या अवसान का,
राहें तमाम ले जाती उस ओर,
निवास जहाँ उस परब्रम्ह का है,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

आकांक्षाएँ जीवन की सारी,
शायद पूरी हो जाती इक जगह,
विषाद मनप्रांगण की मिट जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

राहें प्यासी जीवन की सारी,
शायद मिलती हैं इक जगह,
केन्द्रित ये इक जगह हो जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

तज सांसारिक इच्छाएं सारी,
सत्य को परख तू उस जगह,
अवसाद विसाद जहां मिट जाती,
वो पंथ जहाँ महा निर्वाण है।

महनिर्वाण मृत्यु मे शायद

महनिर्वाण मृत्यु मे शायद!

पंथ जिसपर ईश्वर का निवास है,
आत्माएँ विलीन जहाँ हो जाती है,
विकार मन के जहाँ घुल जाते हैं,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

ईश तत्वग्याण का प्रारंभ जहाँ है,
किरण सत्यमार्ग का फूटता जहाँ है,
आशा-निराशा का उत्थान जहाँ है,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

आधार स्तम्भ जो जीवन का है,
प्रारंभ वही तो महाजीवन का है,
जीवन मृत्यु जिसकी सीमा रेखा है,
महानिर्वाण शायद वहीं मिलता है।

Wednesday 30 December 2015

निर्दोष का कर्मपथ

कर्म-पथ की इन राहों पर,
मानदण्डों के उच्च शिखर,
सदा स्थापित मैं करता रहा,
फिर क्युँ कर मैं दोषी हुआ?

षडयंत्र को मैं जान न पाया,
हाथ पकड़ जिसने करवाया,
अब तक उसको दोस्त सा पाया,
फिर वो कैसे निर्दोष हुआ?

ईश्वर इसकी करे समीक्षा,
दोष-निर्दोष का है वो साक्षी,
देनी हो तो दे दो मुझे दीक्षा,
दोषी मैं वो निर्दोष कैसे हुआ?

Sunday 20 December 2015

मन रुपी वृक्ष

निस्तब्ध विशाल आकाश के मध्य,
मन रुपी वृक्ष !
मानो चाहे मौन तोड़ कुछ कहना,

पर निष्ठुर वक्त की दायरे संकीर्ण इतने कि,
कौन सुने इनकी मन की बातें?
कौन करे इंतजार?

अब केवल मौन है,
निस्तब्धता है मन के भीतर,
जैसे निस्तब्ध रात की सियाह चादर पर,
टंकी सितारों की लड़ियाँ बिखर गई हैं।

खनकती हंसी खो गई है हवाओं के साथ,
सिर्फ इक नाम होठों पे ठहरा है युगों से,
ख़ामोशी की दीवार तोड़ना चाहते हैं कुछ शब्द,
लेकिन वक्त के हाथों मजबूर हैं,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

क्यूंकि वक्त ने छोड़ा है केवल ''मौन'',,,,,,,,,,
जैसे किसी बियावान निर्जन देवालय में,
पसरा हो ईश्वर का नाम...!
पूजनेवाला कोई नहीं,
बचे हो सिर्फ एहसास..............!