Showing posts with label ढ़ाढ़स. Show all posts
Showing posts with label ढ़ाढ़स. Show all posts

Wednesday, 5 May 2021

अंजान रिश्ते

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Tuesday, 10 September 2019

हवाएँ

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

आए कौन सी दिशा से?
जाए कौन दिशा?
तप्त सुलगते, तन को सहलाकर,
झुलसते, मन को बहलाकर,
देकर क्षणिक दिलासा, कोरा सा ढ़ाढ़स!
क्षण भर को देकर राहत,
दूजे ही क्षण, कर दे ये आहत,
बहलाए, मन भटकाए,
जाने, कौन दिशा ले जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

रुख इनके, मोड़ दूँ कैसे?
बंध तोड़ दूँ कैसे?
भीनी सी खुश्बू, साँसों में भर कर,
चल देती है, मन को हर कर 
चैन जरा सा देकर, कर जाती है बेवश!
जगा कर, सोई सी चाहत,
देकर, अन्जानी की अकुलाहट,
सताए, मुँह मोड़ जाए,
अन्जान, दिशा चली जाए?

देखे ना, फिर मुड़कर ये हवाएँ!

ऐ पंछी, जा कह उनसे!
लौट कर आए वो!
जाए ना फिर, यूँ मेरा चित्त लेकर,
यूँ क्षणिक, दिलासा देकर,
बूँद-बूँद को प्यासी, है ये ऋतु पावस!
ना दे, कोरा सा ढ़ाढ़स,
ठहर जरा, दे दे मन को राहत,
फिर चाहे इठलाए,
लेकिन, ठहर यहीं वो जाए!

पर देखे ना, मुड़कर ये हवाएँ!

                - पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा