Wednesday, 5 May 2021

अंजान रिश्ते

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
कब, जुड़ा रिश्ता!
लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
कब गुजर गए, बन सांझ वही!
तो जागा, क्यूँ लिखता?
व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

कल, पल न बन जाए भारी!
यूँ, निभा न यारी!
न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
न यूँ, बेकल पल बिता,
यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!

मन, तू जागा है क्यूँ?
क्यूँ, है थामे!
अनगिनत, अंजान रिश्तों का, धागा तू?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

32 comments:

  1. खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
    कब, जुड़ा रिश्ता!
    लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
    कब गुजर गए, बन सांझ वही!
    तो जागा, क्यूँ लिखता?
    व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू... बहुत सुंदर रचना

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    1. विनम्र आभार आदरणीया शकुन्तला जी।

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  2. भावों में डूबे मन की दशा को परिभाषित करती नायाब रचना।

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    1. विनम्र आभार आदरणीया जिज्ञासा जी।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3020...अपना ऑक्सीजन सिलिंडर साथ लाइए!) पर गुरुवार 6 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3020...अपना ऑक्सीजन सिलिंडर साथ लाइए!) पर गुरुवार 6 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. खुद कहाँ, कब, तुझको पता!
    कब, जुड़ा रिश्ता!
    लग गए, कब अदृश्य से गाँठ कई!
    कब गुजर गए, बन सांझ वही!
    तो जागा, क्यूँ लिखता?
    व्यथा की, वही एक अन्तःकथा तू!
    ये अपने वश में कहाँ कि अदृश्य से रिश्ता जुड़े या ना जुड़े , ये तो जुड़ ही जाता है जब जुड़ना होता है। व्यथा की अंतर्कथाओं का भी अपना महत्त्व है।
    बहुत सुंदर, भावपूर्ण रचना। बधाई।

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  6. बहुत ही भावुक रचना। ये मन से की गई संवाद मेरे मन को छू गई। बेहतरीन! हाँ...आप सदैव ही बेहतरीन है।

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  7. बहुत सुन्दर !
    मेरा दर्द गीत बन जाए,
    मेरी व्यथा कथा बन जाए !

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  8. मर्मस्पर्शी रचना

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    1. विनम्र आभार आदरणीया अभिलाषा जी।

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  9. जब कविता आपने मन से लिखी है पुरुषोत्तम जी तो पढ़ने वाले के मन को तो छुएगी ही। मैंने महसूस कर लिया है उसे जो आपके दिल से निकलकर आपकी क़लम के ज़रिये हम तक पहुँचा है।

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    1. विनम्र आभार आदरणीय जितेन्द्र माथुर जी। ।।।

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  10. वाह!बहुत सुंदर 👌

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  11. दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना,पुरुषोत्तम भाई।

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  12. मतवाले मन का सुन्दर वर्णन

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  13. बहुत खूबसूरत, "अनगिनत अंजान रिश्तों का धागा तू"

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  14. अंतर्मन को छू गई आपकी कविता नीरज जी की कुछ कविताएं याद आ गई, मन को बहुत गहन स्पर्स देती रचना।

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    1. इतने बड़े सम्मान के लिए आभारी हूँ आपका आदरणीया कुसुम जी।
      विनम्र नमन।।।।।

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  15. कल, पल न बन जाए भारी!
    यूँ, निभा न यारी!
    न कर, उन अनाम रिश्तों की सवारी,
    कल, कौन दे, तुझको यूँ ढ़ाढ़स,
    न यूँ, बेकल पल बिता,
    यूँ न गढ़, व्यथा की अन्तःकथा तू!
    आभासी जगत में पहली बार वर्षा जी के जाने से इसी तरह की अनुभूति हुई पुरुषोत्तम जी। कई बार यही लगता है कि कहीं भी मन को जोड़ लेना बहुत दर्द का अनुभव देकर जाता है। भावपूर्ण रचना मन को स्पर्श कर गईं,🙏🙏💐💐

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    1. कुछ ऐसी ही अनुभूतियों ने मुझे प्रेरित भी किया है आदरणीया रेणु जी। बहुत-बहुत धन्यवाद।

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