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Friday, 17 May 2019

निर्मेघ

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

दूर कहीं, घिर आई थी मेघावरि,
उच्छल थे बादल,
इठलाती बूँदें, टिप-टिप कर बरसी,
बना बुत, तकता मैं रहा,
अपने आंगन खड़ा,
सूना पड़ा, मेरे हिस्से का निर्मेघ आसमां!

बह चली, फिर वही बैरन पवन,
ले उड़े वो बादल,
मुझसे परे, दूर कहीं आंगन से मेरे,
खुद के, सवालों से घिरा,
हैरान हठात खड़ा,
मैं अपलक तकता रहा, उच्छल आसमां!

सर्वदा दूर, जाती रही मेघावरि,
छलते रहे बादल,
सूखी रही, मेरे ही आंगन की ज़मीं,
बदलते रहे, परिदृश्य कई,
अधूरे सारे दृश्य,
संग लेकर, नैनों से ओझल हुए आसमां!

सदा ही निर्मेघ रहा, मेरे आंगन का आसमां!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा