Showing posts with label प्रशीत. Show all posts
Showing posts with label प्रशीत. Show all posts

Sunday 25 December 2022

निशा

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशीथ काल, 
जब पल हो जाते प्रशीत,
तब दबे पांव, घूंघट ओढ़े, कोई आता,
पग धरता, बोझिल मन मानस पर,
सिहर कर, जग उठती,
सोई चेतना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

पंख पसारे,
ये विहग‌ आकाश निहारे,
विस्तृत आंचल के, दोनो छोर किनारे,
उन तारों से, न जाने कौन पुकारे,
हृदय के, गलियारों में,
जागे वेदना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

निशा जागती,
खिल उठती, रजनीगंधा,
लय पर नाद-मृदंग की, झूमती निशा,
सहचर बन, गा उठते निशाचर,
ज्यूं, नव राग की हुई,
इक रचना!

नित ले आती, निशा, नव कल्पना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday 9 July 2021

रुख मोड़ दो

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा, हो चला, ये सिलसिला!

बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!

अनसुना कर चला, ये सफर, ये काफिला!

अनसुने से, धड़कनों के हैं, गीत कितने,
बाट जोहे, हैं बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
बेसुरे से, हो चले, संगीत सारे,
गूंज कर ये वादियाँ, किनको पुकारे!
संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही, धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)