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Friday, 9 July 2021

रुख मोड़ दो

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा, हो चला, ये सिलसिला!

बेखबर, ये अनमना सा, अन्तहीन सफर,
हर तरफ, बस, एक ही मंज़र,
बेतहाशा भागते सब, पत्थरों के पथ पर,
परवाह, किसकी कौन करे?
पत्थरों से लोग हैं, वो जियें या मरे!
अनभिज्ञ सा, ये काफिला,
अपनी ही, पथ चला!

अनसुना कर चला, ये सफर, ये काफिला!

अनसुने से, धड़कनों के हैं, गीत कितने,
बाट जोहे, हैं बैठे, मीत कितने,
किनारों पर, अनछुए से प्रशीत कितने,
बेसुरे से, हो चले, संगीत सारे,
गूंज कर ये वादियाँ, किनको पुकारे!
संगदिल सा, ये काफिला,
अपनी ही, धुन चला!

कोई रुख मोड़ दो, इस सफर का,
या छोड़ दो, ये काफिला,
अनमना सा हो चला, ये सिलसिला!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Friday, 11 June 2021

कोरे कागज

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

बीते कई दिन, बस यूँ ही, अनमने से,
अर्ध-स्वप्न सी, बीती रातें कई,
नैन मलता रहा, बस यूँ ही, जागा-जागा,
दूर, जीवन कहीं, रंगों से भागा,
सोई, मन की उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

बही प्रतिकूल, यूँ ही, ये चंचल हवाएँ,
छू ले, कभी, यूँ नाहक जगाए,
अनमनस्क लग रहे, नदी के ये किनारे,
दूर, बहते रहे, अनवरत वो धारे,
खो गई, सारी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

शायद, बहने लगे, पवन हौले-हौले,
मन को मेरे, कोई यूँ ही छू ले!
शून्य क्यूँ है इतना, कोई आए टटोले!
दूर, क्षितिज पर, फिर से बिखेरे,
वो ही, सतरंगी उमंगे!

ना गिन पाऊँ, आती-जाती, मन की तरंगें,
कोरे, ये कागज सारे, अब कौन रंगे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday, 18 November 2017

आज क्युँ?

आज क्युँ ?
कुछ बिखरा-बिखरा सा लगता है,
मन के अन्दर ही, कुछ उजड़ा-उजड़ा सा लगता है,
बाहर चल रही, कुछ सनसन करती सर्द हवाएँ,
मन के मौसम में,
कुछ गर्म हवा सा शायद बहता है.......

आज क्युँ ?
कुछ खुद को समेट नहीं पाता हूँ मैं,
बस्ती उजड़ी है मन की, बसा क्युँ नहीं पाता हूँ मैं,
इन सर्द हवाओं में, उष्मा ये कैसी है मन में,
गुमसुम चुप सा ये,
कुछ बीमार तन्हा-उदास सा रहता है......

आज क्युँ ?
खामोश से इस मन में सवाल कई हैं,
खामोशी ये मन की, बस इत्तफाक सा लगता है,
सवालों के घेरे में, कैसे घिरा-घिरा है ये मन,
अबतक चुप था ये,
कुछ बेवशी के राज खोल रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ खुद से ही बेगाना हुआ हूँ मैं,
बेजार सा ये तन, मन से कहीं दूर सा दिखता है,
दर्द यही शायद, सह रहा आज तक ये मन,
सर्द सी ये हवाएँ,
कुछ चुभन के द॔श दे रहा लगता है......

आज क्युँ ?
कुछ अनचाही सी बेलें उग आई हैं,
मन की तरुणाई पर, कोई परछाई सा लगता है,
बिखरे हो टूट कर पतझड़ में जैसे ये पत्ते,
वैसा ही बेजार ये,
कुछ अनमना या बेपरवाह सा लगता है.......