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Saturday 24 September 2016

बचपना

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

दौड़ पड़ता हूँ आज भी खेतों की आरी पर,
विचलित होता हूँ अब भी पतंगें कटती देखकर,
बेताब झूलने को मन झूलती सी डाली पर,
मन चाहता है अब, कर लूँ मैं फिर शैतानियाँ ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना,

लटकते बेरी पेड़ों के, मुझको हैं ललचाते,
ठंढी छाँव उन पेड़ों के, रह रहकर पास बुलाते,
मचल जाता हूँ मै फिर देखकर गिल्ली डंडे,
कहता है फिर ये मन, चल खेले कंचे गोलियाँ.....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

यौवन की दहलीज पर उम्र हमें लेकर आया,
छूट गए सब खेल खिलौने, छूटा वो घर आंगना,
बचपन के वो साथी छूटे, छूटी सब शैतानियाँ,
पर माने ना ये मन , करता यह नादानियाँ....

देखो ना, बीत गई उम्र सारी पर बीता न बचपना।

Monday 19 September 2016

घर

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें...

कहता हूँ मैं अपनी दुनियाँ जिसे,
वो चहारदिवारी जहाँ हम तुम बार-बार मिले,
जहाँ बचपन हमारे एकबार फिर से खिले,
करके इशारे, वो आँगन फिर से बुलाती हैं तुझे...

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

पलकों तले तुमने सजाया था जिसे,
इंतजार करती थी तुम जहाँ नवश्रृंगार किए,
आँचल तेरे ढलके थे जहाँ पहलू में मेरे,
पलकें बिछाए, वो अब देखती है बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

रौशन थे तुझसे ही इस घर के दिए,
तेरी आँखों की चमक से यहाँ उजाले धे फैले,
खिल उठते थे फूल लरजते होठों पे तेरे,
दामन फैलाए, वो तक रहीं हैं बस तेरी ही राहें....

सजाया है घर को मैने, पुकारती हैं तुझको ये बाँहें....

Monday 2 May 2016

सपने

कुछ सपने देखे ऐसे, सच जो ना हो सके,
आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ना हो सके,

सपना देखा था इक छोटा सा,
मुस्कुराऊँगा जीवन भर औरों की मुस्कान बनकर,
फूलों को मुरझाने ना दूंगा,
इन किसलय और कलियों में रंग भर दूंगा,
पर जानता ही नहीं था कि आते हैं पतझड़ भी,
उजड़ चाते हैं कभी बाग भी खिल जाने से पहले,
हम सपने ही रहे देखते, इस सच को कब जान सके।

मेरी आँखो में ही रहे पलते, बस अपने ये ना हो सके।

सपना इक देखता था बचपन से,
जिन गलियों मे बीता बचपन उनकी तस्वीर बदल दूँगा,
निराशा हर चेहरे की हर लूंगा,
खुशहाली के बादल से जीवन रस टपकेगा,
पर जानता नही था कि मैं खुद ना वहाँ रहूंगा,
प्रगति के पथ पर, जीवन के आदर्श ही बदल लूंगा,
हम आदर्शों को रहे रोते, और खुद के ही ना हो सके।

इन आँखो में ऐसे ही सपने, बस अपने ये ना हो सके,
कुछ सपने देखे थे ऐसे, सच जो ना हो सके......!

Wednesday 10 February 2016

बचपन की जिद

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

सोचता हूँ बचपन का नन्हा सा बालक हूँ आज मैं,
जिद करता हूँ अनथक छोटी छोटी बातों को ले मैं,
चाह मेरी छोटी छोटी सी, पर है कितनी जटिल ये,
मम्मी पापा दोनों से बार-बार करता कितना रार मैं,
नन्हा सा हूँ पर मम्मी पापा से करता अपने प्यार मैं।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

यूँ तो पूरी हो जाती हैं सारी दिली फरमाइशें मेरी,
पर मेरे मन की ना हो तो फिर जिद तुम देखो मेरी,
चाकलेट की रंग हो या फिर आइसक्रीम की बारी,
चलती है बस मेरी ही, नही चाहिए किसी की यारी,
नन्हा सा हूँ तो क्या हुआ पसंद होगी तो बस मेरी।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

रातों को सोता हूँ तो बस अपनी मम्मी पापा के बीच,
खबरदार जो कोई और भी आया हम लोगों के बीच,
दस बीस कहानी जब तक न सुन लू सोता ही मैं नहीं,
मम्मी की लोरी तो मुझको सुननी है बस अभी यहीं,
सोता हूँ फिर चाकलेट खाके पापा मम्मी के बीच ही। 

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

उठता हूँ बस चार पाँच बार रातों में माँ-माँ कहता,
पानी लूंगा, बाथरूम जाऊंगा मांग यही बस करता,
स्वप्न कभी आए तो  परियों की जिद भी करता हूँ,
खेल खिलौने मिलने तक मैं खुश कम ही होता हूँ,
मांगे मेरी पूरी ना हो तो घर को सर पर ले लेता हूँ।

बचपन की जिद और तकरार आती है याद बारबार!

कपड़े की डिजाइन तो होगी, बस पसंद की मेरी ही,
पापा चाहे कुछ भी बोलें, कपड़े लूंगा तो मैं बस वही,
हुड डिजाइन वाले कपड़े, तो बस तीन-चार लूंगा ही,
पापा मम्मी के कपड़े भी, पसंद करूंगा तो बस मैं ही,
कोल्ड ड्रिंक, समोसे, पिज्जा, चिकन तो मैं लूंगा ही।

बचपन की जिद और तकरार आती याद बारबार!

(मेरी बेटी की फरमाईश पे लिखी गई कविता)