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Monday 2 March 2020

कैसी फगुनाहट

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

खून-खून, है ये फागुन,
धुआँ-धुआँ, उम्मीदें,
बिखरे, अरमानों के चिथरे,
चोट लगे हैं गहरे,
हर शै, इक बू है साजिश की,
हर बस्ती, है मरघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

छलनी-छलनी, ये मन,
छलकी सी, आँखें,
छूट चले, आशा के दामन,
रूठ चले हैं रंग,
डूब चुके, हृदय के तल-घट,
छूट, चुके हैं पनघट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!

बस्ती थी, ये कल-तक,
है अब, ये मरघट,
घुल चुके भंग, इन रंगों में,
धुल चुके हैं अंग,
उड़ चले गुलाल, सपनों से,
अब कैसी, फगुनाहट!

संग हो, उम्मीदों की आहट!
तुम, तब ही आना, ऐ फगुनाहट!
हूँ, दंगों से आहत!
ऐ फगुनाहट!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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कैसी फगुनाहट (मेरी आवाज मे You Tube पर इस रचना को सुनें)
https://youtu.be/jV0W5oNbBAU

Sunday 13 January 2019

यदा कदा

यदा कदा!
फिर कर उठता है मन,
सजल नैनों से, उन राहों पे सजदा,
जिद, फिर जाने की उधर,
उजाड़ सा वो शहर,
दुर्गम अपवाहित वो ही डगर!
उठते हैं जिन पर,
रह-रह कर,
नित, कोई प्रबल ज्वर,
नियंत्रण, ना हो जिन पर....
दो घड़ी,
पा लेने को चैन,
अनथक, करता है प्रतीक्षा,
उन राहों पे मन,
चल पड़ता है, करने को फिर सजदा...

यदा कदा!
फिर कह उठता है मन,
निर्जन है वो वन, पागल ना बन,
जिद, ना तू कर इस कदर,
उजड़ा है वो शहर,
क्या पाएगा जाकर उस डगर?
मरघट है बस जिधर,
जी-जी कर,
नित, मरते सब जिधर,
अधिकार, ना हो जिन पर,
पा लेने को चैन,
असफल, करता है इक्षा,
उन राहों पे मन,
क्यूँ चलता है, करने को फिर सजदा...

यदा कदा!
फिर बह उठता है मन,
उफनती हुई, इक नदिया बन,
जिद, प्रवाह पाने को उधर,
बहा जाने को शहर,
प्रवाहित ही कर देने को डगर,
सम्मोहन सा है जिधर,
मर-मर कर,
नित, जीता वो जिधर,
ठहराव, ना हो जिन पर,
पा लेने को चैन,
प्रतिपल, देता है परिविक्षा,
खुद राहों को मन,
समाहित कर, फिर करता है सजदा...

यदा कदा! कैसी ये सजदा!