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Friday, 29 January 2016

निःस्वार्थ

चिलचिलाती सी धूप में,
निहारता किसी छाँव की ओर,
देख विशाल एक वटवृक्ष,
बढ पड़े कदम उस ओर।

विश्राम कुछ क्षण का मिला,
मिली चैन की छाँव भी,
कुछ वाट वटोही मिले,
हुई कुछ मन की बात भी।

मंद हवा के चंद झौंके मिले,
कांत हृदयस्थल हुआ,
कुछ अनोखे भाव जगे,
प्रश्न अनेंकाें फिर मन में उठे।

विशाल वटवृक्ष महान कितना,
ताप धूप की खुद सहकर,
निःस्वार्थ छाँव पथिक को दे गया,
शीतल तन को कर मन हर ले गया।

Wednesday, 20 January 2016

जोगन और बटोही

युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!

शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!

वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!

फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!

मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!

भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!

अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!

युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!

जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।

हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!

खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।

अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!