युगों से द्वार खड़ी वाट जोहती वटोही का वो!
शायद भूल चुका वादा अपना चितचोर वो वटोही,
मुड़कर वापस अबतक वो क्युँ ना आया?
यही सोचती वो जोगन वाट जोहती!
वो निष्ठुर हृदय उसको तनिक भी दया न आई,
मैं अबला उसने मेरी ही क्युँ चित चुराई?
चित चुराने ही आया था वो सोचती!
फिर सोचती! होगी कोई मजबूरी उसकी भी,
चितचोर नही हो सकता मेरा परदेशी!
समझाती मन को फिर राह देखती!
मेरे विश्वास का संबल बसता हिय उस परदेशी के,
बल मेरे संबल का क्या इतना दुर्बल?
वाट जोहती जोगन रहती सोचती!
भाग्य रेखा मेरे ही हाथों की है शायद कमजोर,
कर नही पाती मदद जो ये मेरे प्रीतम की,
बार-बार अपने मन को समझाती!
अब तो बाल भी सफेद हो गए आँखें कमजोर,
क्या मेरा वटोही अब देखेगा मेरी ओर?
झुर्रियों को देख अपनी सिहर जाती!
युगों तक बस वाट जोहती रही उस वटोही का वो!
जोगन की विश्वास का संबल दे गया अथाह खुशी,
वक्त की धूंध से वापस लौट आया वो परदेशी!
अश्रुपूर्ण आखें एकटक रह गई खुली सी।
हिय लगाया उस जोगन को काँपता वो परदेशी,
व्यथा जीवन सारी आँखों से उसने कह दी,
निष्ठुर नहीं किश्मत का मारा था वो वटोही!
खिल उठी विरहन सार्थक उसकी तपस्याा हुई!
युगों युगों तक फिर वो जोगन, उस वटोही की हो गई।
अब सोचती! मेरा प्रीतम चितचोर था, पर निष्ठुर नही!
जीवन के अनुभवों पर, मेरे मन के उद्घोषित शब्दों की अभिव्यक्ति है - कविता "जीवन कलश"। यूं, जीवन की राहों में, हर पल छूटता जाता है, इक-इक लम्हा। वो फिर न मिलते हैं, कहीं दोबारा ! कभी वो ही, अपना बनाकर, विस्मित कर जाते हैं! चुनता रहता हूँ मैं, उन लम्हों को और संजो रखता हूँ यहाँ! वही लम्हा, फिर कभी सुकून संग जीने को मन करता है, तो ये, अलग ही रंग भर देती हैं, जीवन में। "वैसे, हाथों से बिखरे पल, वापस कब आते हैं! " आइए, महसूस कीजिए, आपकी ही जीवन से जुड़े, कुछ गुजरे हुए पहलुओं को। (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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Wednesday, 20 January 2016
जोगन और बटोही
Saturday, 9 January 2016
एक जोगन या विरहन?
एक अधेर औरत!
शायद जोगन या विरहन?नदी किनारे बैठी वर्षों से,
अपलक देखती धारों के उस पार,
आँखें हैं उसकी पथराई सी,
होंठ सूखे हुए कपड़े चीथड़े से,
पर बाल बिलकुल सँवरे से,
शायद उसे किसी के लौटने का,
अन्तहीन, अनथक इंतजार है।
हजारों आने-जाने वाले,
कई सिर्फ उसे देख गुजर जाते,
पर कोई उसे टोकता नही,
उसके अन्दर छुपे,
मर्म पीड़ा को सुनने समझने की,
शायद किसी को जरूरत नही।
इलाके में नया था मैं,
कुछ दिनों से रोज,
मैं देखता उसकी ओर
और आनेजाने वालों को भी,
अकुलाहट सी होती, कई प्रश्न उठते,
मन के अन्दर, फिर सोचता,
शायद मनुष्य के अन्दर इंसान,
या उसके जज्बात पूर्णतः मर चुके हैं!
इस उधेड़बुन में मैने सोचा,
क्युँ न मैं खुद पूछ लूँ,
उसकी व्यथा, पीड़ा, कहानी?
हिम्मत जुटाई खुद को तैयार किया,
उसके समीप जाकर ठहर गया,
अनायास ही वो मेरी ओर मुड़ी,
उसकी पथराई आँखें चौंध सी गई,
कई भाव एकसाथ उसके
चेहरे पर तैरने लगे थे,
जुबान अवरुद्ध थी उसकी,
सजल हो उठी थी आँखे,
मानो सारी व्यथा उसने कह दी थी,
और मेरी ओर एकटक देखी जा रही थी।
उसका मुख देख मै हतप्रभ था,
मेरी आँखों से आँसू के दो बूँद बह गए,
मेरी संवेदना समझ चुकी थी,
शायद उसके उपर दुखों का
भीषण सैलाब टूटा होगा कभी,
मर्माहत हुए होंगे उसके अरमान,
पर वो तो ज्जबातों को शब्द भी नही दे सकती!
जैसे तैसे अपने मन को काबू में कर,
मैंने उसे एक आश्रम मे छोड़ दिया था,
मैं समझ गया था शायद,
एक जोगन या विरहन ही है वो!
पर उसे थी जरूरत मानवीय संवेदना की!
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