भाषा जेहन की आज अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से होता व्याकुल।
परछाईं एक सदियों से जेहन में,
अंगड़़ाई लेती मृदुल पंखुड़ी बन।
मिला जीवन मे बस दो पल वो,
यादें जीवन भर की दे गया वो।
मृदुल स्नेह की चंद बातो में ही,
सौदा उम्र भर का कर गया वो।
जेहन की गहराई मे शामिल वो,
स्मृति की छाँव पाकर रहता वो।
अंकित स्मृति पटल पर अब वो,
मन उपवन की वादी मे अब वो,
जेहन की स्मृतिगृह मे रहता वो,
मंद-मंद सासों में मदमाता। वो।
यादों की परछाईयों मे घिरा जेहन,
स्मृति स्नेह में रम व्याकुल अब वो।
कहती भी क्या वाणी विहीन अक्षरहीन भाषा उसकी?
मूक जेहन आज भी वाणी विहीन,
भाषा जेहन की आज अब भी अक्षरहीन,
परछाईयों मे घिरा, परछाईयों से ही व्याकुल जेहन।