Tuesday, 29 December 2015

कह तो तुम सब अनकही

कह दो तुम सब अनकही।

जो तुमने अब तक ना कहा,
जो मैने अब तक ना सुना,
नयनों के सधे वाणो से 
अब तक तुम कहती रही,
जो बातें अब तक मन मे रही,
अपने शब्द प्रखर इन्हे दे दो।

कह दो तुम सब अनकही।

अनकही बातें करती है कलरव,
शिखर निर्झर झरे जल की तरह,
अनकहे जज्बात कौंधती रह रह,
बादलों में छुपे बिजली की तरह,
उमरती घुमरती मन में रही
इन जज्बातों को शब्द मुखर दे दो।

कह दो तुम सब अनकही।

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

एकाकीपन का सघन विराना,
घेरे जीवन को अनन्त सुदूर तक,
सूनेपन के कोलाहल से मन व्यथित अबतक,
हृदयदल को छू गई इक रश्मिकण,
पर किसने इस रश्मिकण को भरमाया ।

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

हृदय मे बजने लगी थी मृदंग रागिणी,
हवाओं मे घुलने लगी थी खुशबु भीनी,
अन्तर्मन के विरानो में फैली थी चाँदनी,
स्वप्निल फुलझड़ियाँ फूट परे थे उस क्षण,
पर किसने इस क्षण को भरमाया!

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

एकाकीपन उसने तोड़ा था,
व्यथित मन को दी थी इक आशा,
सपन सुनहला जन्मा था आँखों,
सुख की घड़ियों को मैने पहजाना था,
पर किसने इन घड़ियों को भरमाया ।

तुझसे मेरा वक्त किसने छीना?

रहने दो तुम मत दो आस

रहने दो तुम.....!
अब मत करो बात।
भूल जाओ,
अब मत दो आस।
तुम्हारे होंगे असंखय दोस्त,
मिटती होगी जिनसे
तेरी प्यास,
मेरी तो बस एक ही आस,
ला सकता था जो मधुमास,
स्मृति से तेरे हुआ मैं विस्मृत,
बस अब तो,
छोड़ चला हूँ आस।
न मिट सकेगी अब,
इस मन की प्यास।
रहने दो तुम....!
भूल जाओ, मत दो आस,
रहने दो तुम.....!
मत करो बात।
गुजरा हुआ वक्त हूँ मैं,
लौट नही फिर आउँगा,
यादों मे रह जाऊँगा साथ,
रहने दो तुम.....!

दृश्य विहंगम

दृश्य विहंगम समक्ष आँखों के,
आभा प्रकृति की अति निराली,
उपवन ने छेड़े है राग मधुर से,
मचल उठे प्राण तुझ संग अालि।

अरुणिमा यूँ बिखरी नभ पर,
फूलों के चेहरे हो रहे है प्रखर,
राग प्रकृति संग खग के मुखर,
मुरझाए निशि के कर्कश स्वर।

शिखर हिमकण इठलाते झिलमिल,
पात ओस की बूँदों के मुख गए खिल,
कोयल ने छे़ड़ी रागिणी अति कोमल, 
आलि संग हंदय हो गए हैं आकुल।

मेरा एकाकीपन

मैं अकेला,
अग्यात् रश्मिकण,
जीवन की सांध्य वेला।

मेरा एकाकीपन
देकर स्नेह चुंबन,
बांधती जाती मुझे अकेला।

पी गया मैं
गरल जीवन का,
समझ मधुघट अलबेला।

प्यासे जीवन की आशा

आग वो जो जीवन पीकर जलती है,
प्यार वो जो प्यालों में डूबकर मिलती है,
कोमलता वो जो तुम संग मिलती है,
मधुरता वो उस क्षण प्राणों में बसती है।

प्यास वो जो गरल पीकर बुृझती है,
आँसू वो जो तेरी यादों में बहती है,
सम्मुख वो जो जग से विमुख रहती है,
लहर वो जो तुझ संग हृदय में उठती है।

ओह! मन तू समझ ले जीवन की परिभाषा,
डाल दृष्टि उस अचेतन पर तू तजकर निराशा,
विमुख जो तुझको दिखता, वही है तेरे सम्मुख,
गरल मे ही संचित है, प्यासे जीवन की आशा।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

मिटती नही मन की क्युँ प्यास !

जैसे जीवन में गायन हो कम,
गायन में हों स्वर का अधूरापन,
स्वर में हो कंपन का विचलन,
कंपन में हो साँसों का तरपन ।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

जीवन दो क्षण सुख के मिले,
और प्यास मिली रेगिस्तानों सी,
मृगतृष्णा अनंत अरमानों के मिले,
प्यास मिली कितनी प्रबल सी।

मिटती नहीं मन की क्युँ प्यास?

अतृप्त अन्तर्मन

अतृप्ति कितना अन्तर्मन में,
विह्वल प्राण आकुल तन में,
पीड़ा उठते असंख्य प्रतिक्षण में,
अतृप्त कई अरमान जीवन में।

मधु चाहता पीना ये हर क्षण,
अगणित मधु प्यालों के संग,
चाहे मादकता के कण-कण,
आह! अतृप्त कितना है जीवन।

असंख्य मधु-प्याले पीकर भी,
बुझ पाती नही मन की प्यास,
शायद तृप्ति ही है यह क्षणिक,
आह! अतृप्ति अटल अन्तर्मन में।

Monday, 28 December 2015

क्या बीते वर्ष मिला मुझको

पथ पर ठहर मन ये सोचे,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

चिरबंथन का मधुर क्रंदन या
लघु मधुकण के मौन आँसू।

स्वच्छंद नीला विशाल आकाश या
अनंत नभमंडल पर अंकित तारे।

चिन्ता, जलन, पीड़ा सदियों का या,
दो चार बूँद प्यार की मधुमास।

अवसाद मे डूबा व्यथित मन या
निज जन के विछोह की अमिट पीड़ा।

मौन होकर ठहर फिर सोचता मन,
क्या बीते वर्ष मिला है मुझको।

धुँधला साया

आँखों मे इक धुंधला सा साया,
स्मृतिपटल पर अंकित यादों की रेखा,
सागर में उफनती असंख्य लहरों सी,
आती जाती मन में हूक उठाती।

वक्त की गहरी खाई मे दबकर,
साए जो पड़ चुके थे मद्धिम,
यादें जो लगती थी तिलिस्म सी,
इनको फिर किसने छेड़ा है?

यादों के उद्वेग भाव होते प्रबल,
असह्य पीड़ा देते ये हंदय को,
पर यादों पर है किसके पहरे,
वश किसका इस पर चलता है।

स्मृतिपटल को किसने झकझोरा,
बुझते अंगारों को किसने सुलगाया,
थमी पानी में किसने पतवार चलाया,
क्युँकर फिर इन यादों को तूने छेड़ा ?