Wednesday, 17 August 2016

पहर दो पहर

पहर दो पहर,
हँस कर कभी, मुझसे मिल ए मेरे रहगुजर,
आ मिल ले गले, तू रंजो गम भूलकर,
धुंधली सी हैं ये राहें, आए न कुछ भी नजर,
आ अब सुधि मेरी भी ले, इन राहों से भी तू गुजर....

पहर दो पहर,
चुभते हैं शूल से मुझको, ये रास्तों के कंकड़,
तीर विरह के, हँसते हैं मुझकों बींधकर,
ये साँझ के साये, लौट जाते हैं मुझको डसकर,
ऐ मेरे रहगुजर, विरह की इस घड़ी का तू अन्त कर......

पहर दो पहर,
कहती हैं ये हवाएँ, आती हैं जो उनसे मिलकर,
है बेकरार तू कितना, वो तो है तुझसे बेखबर,
आँखों में उनके सपने, तू उन सपनों से आ मिलकर,
ए मेरे रहगुजर, उन सपनों से न कर मुझको बेखबर.....

पहर दो पहर,
लौट जाती हैं उनकी यादें, कई याद उनके देकर,
बंध जाता है फिर ये मन, उन यादों में डूबकर,
रोज मिलता हूँ उनसे, यादों की वादी में आकर,
ऐ मेरे रहगुजर, इन यादों से वापस न जा तू लौटकर....

Sunday, 14 August 2016

तीन रंग

चलो भिगोते हैं कुछ रंगों को धड़कन में,
एक रंग रिश्तों का तुम ले आना,
दूजा रंग मैं ले आऊँगा संग खुशियों के,
रंग तीजा खुद बन जाएंगे ये मिलकर,
चाहत के गहरे सागर में डुबोएंगे हम उन रंगों को....

चलो पिरोते हैं रिश्तों को हम उन रंगों में,
हरे रंग तुम लेकर आना सावन के,
जीवन का उजियारा हम आ जाएंगे लेकर,
गेरुआ रंग जाएगा आँचल तेरा भीगकर,
घर की दीवारों पर सजाएँगे हम इन तीन रंगों को....

आशा के किरण खिल अाएँगे तीन रंगों से,
उम्मीदों के उजली किरण भर लेना तुम आँखों में,
जीवन की फुलवारी रंग लेना हरे रंगों से,
हिम्मत के चादर रंग लेना केसरिया रंगों से,
दिल की आसमाँ पर लहराएँगे संग इन तीन रंगों को....

Friday, 12 August 2016

रुकी सी प्रहर

रुकी सी प्रहर, रुकी सी साँसें इस पल की.....

अवरुद्ध हुए प्राणों के अारोह,
अवरोह ये कैसी आई इस जीवन की,
रुकी है क्युँ सुरमई सी वो लय?
रुकी है संगीत, रुके हैं गीत मन के हलचल की....,

रुकी सी लहर, रुकी सी गर्जन इस सागर की.....

कंपित प्राणों के सुर थे उस पल में,
गतिशील कई आशाएँ थी इस जीवन की,
झरणों सा संगीत था उस लहर में,
रुकी है प्रहर, रुके हैं गुंजित स्वर उस कोयल की...

रुकी सी स्वर, रुकी सी गायन इस जीवन की....

गीत कोई आशा के तुम फिर गा दो,
प्राणों के अवरोह को अब इक नई दिशा दो,
अवरोह का ये प्रहर लगे आरोह सा,
रुकी हैं रुधिर, रुके हैं नसों में लहु ठहरी जल सी...

रुकी सी प्रहर, रुकी सी साँसें इस पल की.....

Thursday, 11 August 2016

नर्म घास की फर्श पर

नर्म घास की फर्श पर, पल जीवन के मिल गए.....

ओस की बूँदों से लदी हरी सी घास वो,
दामन वादी में फैलाए बुलाती पल-पल पास वो,
कोमल स्पर्शों से दिलाती अपनत्व का आभाष वो,
इशारों से मन को हरती लगती खास वो,
इनकी विशाल सी बाहें, मन के प्रस्तर को हर गए....,

आकर्षित हो कुछ पल जो बैठा पास मैं,
बँध सा गया मन नर्म घास की हरी सी पाश में,
बूंदो से फिर मुझको नहलाया हरी सी घास ने,
रस करुणा का पिलवाया उसके एहसास ने,
आलिंगन उसकी बाहों के फिर तन को मिल गए.....

मूक भाषा में अपनी, बातें कितनी वो कह गई,
कह सके न लब जिसे, उन लफ्जों से मन को छू गई,
दे न सका जिसे अबतक कोई, राहत ऐसी दे गई,
भीनी सी खुशबु इनकी, एहसास नई सी दे गई,
अन्जाना था उससे मैं, रिश्ते जन्मों के अब जुड़ गए....

अनबोले बोलों में उसकी, पल जीवन के मिल गए....

Wednesday, 10 August 2016

उभरते जख्म

शब्दों के सैलाब उमरते हैं अब कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते है ये शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

अंजान राहों पे शब्दों ने बिखेरे थे ख्वाबों को,
हसरतों को पिरोया था इस मन ने शब्दों की सिलवटों से,
एहसास सिल चुके थे शब्दों की बुनावट से,
शब्दों को तब सहलाया था हमने कलम की नोक से।

ठोकर कहीं तभी लगी इक पत्थर की नोक से,
करवटें बदल ली उस एहसास ने शब्दो की चिलमनों से,
जज्बात बिखर चुके थे शब्दों की बुनावट से,
कुचले गए तब मायने शब्दों के इस कलम की नोक से।

अंजान राहों पर भटक चले थे कलम की नींव ये,
शब्दो को बेरहमी से तब कुचला था कलम की नींव ने,
मायने शब्दों के बदल चुके बस एक ठोकर से,
जज्बात नहीं सैलाब उमरते है अब कलम की नोक से।

शब्दों के सैलाब उमरते गए कलम की नींव से.....
जख्मों को कुरेदते रहे शब्दों के सैलाब कलम की नोक से.....

Tuesday, 9 August 2016

नेह ये कैसा?

नेह ये कैसा?

मासूम सा वो जिद्दी पतंगा,
कोमल पंख लिए लौ पर उड़ता फिरता,
नेह दिल में लिए दिए से कहता,
पनाह मे अपनी ले ले, जीवन के कुछ पल देता जा......

निरंकुश वो दिया है कैसा?
कहता पतंगे से, तू जिद क्युँ करता,
जीवन नहीं, यहाँ मौत है मिलता,
जीवन तू अपना दे दे, जीवन के कुछ पल लेता जा.....

धुन का पक्का पर वो पतंगा,
रंग सुनहरे अपनी निर्दयी दिए को देता,
प्रेम में ही जीता, प्रेम में ही मरता,
आहूति जीवन की देकर, जीवन के कुछ पल जीता....

दिया रोता तब अपने किए पर,
भभककर जल उठता अब रो रोकर,
बुझ जाता पतंगे संग जल जलकर,
कारिख पतंगो को देकर, निशानी नेह की उनको देता...

नेह ये कैसा?

Monday, 8 August 2016

कुछ लम्हे मेरी शब्दों के संग

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.........

आँखें मिली जो आपसे शब्दों के जैसे नींद उड़ गए,
शब्दों को जैसे सुर्खाब के पर लग गए,
सुरूर कुछ छाया ऐसा शब्दों के जेहन पर,
कोरे कागज पर जज्बातों के ये प्रहर से लिख गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

नैनों मे खोए शब्द कभी हँस परे खिलखिलाकर,
कुछ के जज्बात बूँदों में बह निकले,
कुछ शब्दों के वाणी रूँधकर लड़खड़ाए,
कोरे कागज पर मिश्रित से कई तस्वीर उभर गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

शुरू हुई फिर शब्दों में नोंक-झोंक के सिलसिले,
कुछ कहते, वो आए थे मुझसे मिलने गले,
कुछ कहते मेरी चाहत में थे उनके दामन गीले,
कोरे कागज पर शब्दों में अंतहीन जंग से छिड़ गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

अब उन्हीं लम्हों को ढूंढ़ते मेरे शब्द पन्नों पर,
अनकहे जज्बात कई लिख डाले मैंने इन पन्नों पर,
मेरे शब्दों के स्वर और भी मुखर हो गए,
कोरे कागज पर इन्तजार के वो लम्हे बिखर से गए।

कुछ लम्हे जो गुजरे आपके मेरी शब्दों के संग.....

Saturday, 6 August 2016

किसे कह दूँ

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

दुरूह सबकी अपनी-अपनी व्यथा,
मैं शब्दों मे व्यथा का बोझ भरूँ फिर कैसे?
मुस्काते होठ, चमकीली आँखों मे मैं इनको भर लेता,
व्यंगों की चटकीली रंगों से कहता व्यथा की कथा!

व्यथा का आभाष तनिक न उनको,
व्यथा के शब्दों से बींधूँ कैसे उनकी तन को,
हृदय के कोष्ठों, पलकों की चिलमन मे इनको भर लेता,
एकाकी पलों में खुद से खुद कहता व्यथा की कथा!

किसे कह दूँ मैं शब्दों में अपनी व्यथा?
है कौन जो सुने इस व्यथित मन की अरूचिकर कथा?

कोई उस ओर नहीं

कोई अब उस ओर नहीं,
इन्तजार की छोटी भी कोई डोर नहीं,
जेठ दुपहरी नाचे अब मोर नहीं,
विरह के पल काटूँ कैसे?
इस पल का कोई छोर नहीं..!

डसती ये विरहा की वेला,
संजोए अधूरे सपने कोई उस ओर तो होता?
इन्तजार के उन धागों सें मैं बंध जाता,
सपने अधूरे देखूँ कैसे?
आँखो में सपनों के दौर नहीं..!

बूँदें सावन की सूखी-सूखी सी अब,
रंग मेंहदी की लगती फीकी-फीकी सी अब,
कलाई की चूरी करती अब शोर नहीं,
दिल ही दिल इठलाऊँ कैसे?
बेकरार कोई अब उस ओर नहीं!

फिर क्युँ ये मन जाता उस ओर?
अधूरे सपनों संग क्युँ बांधता जीवन की डोर?
मयुरा मन का क्युँ नाचता होकर विभोर?
मन को समझाऊँ कैसे? 
कोई रहता अब उस ओर नहीं..!

Friday, 5 August 2016

बढ़ती रहे जिन्दगी

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....

जिन्दगी की कहानी, ये धार नदी की बलखाती,
करती हवाओं से बातें, शीतल उन्हें बनाती,
जज्बा लिए जीवन का, संघर्ष बाधाओं से वो करती।

नाव जर्जर सी लड़खड़ाती, इक लकड़ी से बस बनी,
हर पल लहरों से टकराती, राह वो चलती रही,
जर्जर शरीर है मगर, जज्बा जीवन का अब भी वही!

लौ आश की उस तैरती दीप मे भी छुुपी,
भीगी सी वो बाती, जल जल जिए वो जिन्दगी,
उस जलन की ताप में ही है छुपी ये जिन्दगी।

हर पल मचलती बेताब लहरों के दिल में भी,
पल आश का छुपा है कहीं,
एक न एक पल तो विश्राम पाएगा वो कहीं।

पर, ठहरा वो लहर जो एक पल भी कहीं,
दम ठंढ़ी हवाओं के घुट जाएंगे वहीं,
रुक जाएगा वो प्रहर रुक जाएगी ये जिन्दगी।

चल, बढ़ बहती धार सा, ताकि बढ़ती रहे ये जिन्दगी.....