Sunday 9 December 2018

मोहक दर्पण

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

प्रतिकृति दिखलाता है वो मेरी,
बेशक कुछ कमियाँ गिनवाता है वो मेरी,
दिखलाता है, वो व्यक्तित्व मेरा,
बतलाता है, ये दामन दागी है या कोरा,
मोह लिया है, यूँ जिसने मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

पुण्य-पाप के, हम सब हैं वाहक,
निष्पापी होने का भ्रम, पालते हैं नाहक,
मन के ये भ्रम, तोड़ता है बिंब,
नजरें फेर जब, बोलता है प्रतिबिम्ब,
दिखलाता है, इक नया रूप मेेेेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

अपना अक्श, ढूंढने को अक्सर,
अपना परिचय खुद से, पाने को अक्सर,
जाता हूँ मैं, सम्मुख दर्पण के,
उभर आता है, समक्ष मेरे मेरा ही सच,
दिखलाता है, कैसा है मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

Saturday 8 December 2018

परिहास

माना भारी है परिवर्तन का यह क्षण,
सुर विहीन अभी है जीवन,
ये सम पर फिर से आएंगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

नई कोपलें फिर आएंगी,
ये ठूंठ वृक्ष,
नग्न डालियाँ,
पीले से बिखरे पत्ते सारे,
सब हैं...
उस पतझड़ के मारे,
ना इन पर उपहास करो....
तुम विश्वास भरो...

ना इन पर, तुम परिहास करो.....

संसृति मृत होती नहीं,
ना ही घन,
ना ये नदियाँ,
ना ही मिटते नभ के तारे,
सब हैं...
इस मौसम के मारे,
ना इन पर उपहास करो
तुम विश्वास भरो...

जारी है ऋतुओं का क्रमिक अनुवर्तन,
रंग विहीन अभी है जीवन,
ये फिर रंगों में रंग जाएगी, तुम विश्वास करो,
ना इन पर, तुम परिहास करो.....

मेरे सपनों में, तुम भी अपना विश्वास भरो,
ना मुझ पर, तुम परिहास करो.....

Tuesday 4 December 2018

यात्रा (JOURNEY) 2015 - 2018

मेरे मन की उद्घोषित शब्दों की अंकित या टंकित रूप है मेरी कविता "जीवन कलश"। मन भीगता है और टपकती है कुछ बूँदें इस पटल पर तो कविताएं स्वरूप ले लेती हैं । जिसे अबतक अपनो पाठकों की प्रशंसाएं व अपार प्यार मिलता रहा है।

दिसम्बर 2015 से जारी इस सफर का हर पड़ाव मुझे रोमांचित करता रहा है। अबतक 950 से अधिक रचनाएँ लिख चुका हूँ जिसे लगभग 1 लाख 19 हजार से अधिक बार दर्शकों / पाठकों द्वारा विभिन्न देशों में  पढ़़ा जा चुका है।

कई नए मित्र इस राह में मिलते गए । नए उदीयमान लेखकों से प्रेरणा भी मिलती रही।

इसी मध्य मेरी पहली कविता संग्रह की पुस्तक "अकेले प्रेम की कोशिश" (Akele Prem Ki Koshish) का प्रकाशन भी संभव हुआ जो मेरी 172 कविताओं का संकलन है। इसे आमेजन के वेबसाईट (www.amazon.com) पर आॅनलाईन भी खरीदा जा सकता है।

हमारे 10 अन्य कवियों के प्रयास से एक और साझा पुस्तक परियोजना भी प्रगति पर है, जल्द ही यह पुस्तक भी बाजार में उपलब्ध होगी।

कहें कि, एक पहचान सी मिली है मुझे,...ब्लाग के माध्यम से। सादर आभार पाठकवृन्द।

बीता कौन, वर्ष या तुम

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

कुछ पल मेरे दामन से छीनकर,
स्मृतियों की कितनी ही मिश्रित सौगातें देकर,
समय से आँख मिचौली करता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
एक यक्ष प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या बीता है कोई सुंदर सा स्वप्न,
या स्थायित्व का भास देता, कोई प्रशस्त भ्रम,
देकर किसी छाया सी शीतलता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनसुलझे प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या यथार्थ से सुंदर था वो भ्रम,
या अंधे हो चले थे, उस माधूर्य सौन्दर्य में हम,
यूँ ही चलते आहिस्ता-आहिस्ता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
क्रमबद्ध ये प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

या प्रकृति फिर लेगी पुनर्जन्म,
या बदलेंगे, रात के अवसाद और दिन के गम,
यूँ ही पुकार कर अलविदा कहता,
बीत चुका, और एक वर्ष....
अनबुझ से प्रश्न मेरे ही सम्मुख रखकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

फिर सोचता हूँ ....
क्रम बद्ध है - पहले आना, फिर जाना,
फिर से लौट आने के लिये .....
कुदरत ने दिया, आने जाने का ये सिलसिला,
ये पुनर्जन्म, इक चक्र है प्रकृति का,
अवसाद क्या जो रात हुई, विषाद क्या जो दिन ढला?

गर मानो तो....
बड़ी ही बेरहम, खुदगर्ज,चालबाज़ है ये ज़िदंगी,
भूल जाती है बड़ी आसानी से,
पुराने अहसासों, रिश्तों और किये वादों को,
निरन्तर बढ़ती चली जाती है आगे..
यूँ बीत चुका, और एक वर्ष....
शायद, कुछ वरक हमारे ही उतारकर!

बीता है आखिर कौन? क्या समय? या तुम?

Sunday 2 December 2018

सूखती नदी

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

संग ले चली थी, ये असंख्य बूँदें,
जलधार राह के, कई खुद में समेटे,
विकराल लहरें, बाह में लपेटे,
उत्श्रृंखलता जिसकी, कभी तोड़ती थी मौन,
वो खुद, अब मौन सी हुई है...

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

कभी लरजती थी, जिसकी धारें,
पुनीत धरा के चरण, जिसने पखारे,
खेलती थी, जिनपर ये किरणें,
गवाही जिंदगी की, देती थी प्रवाह जिसकी,
वो खुद, अब लुप्त सी हुई है.....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

अस्थियाँ, विसर्जित हुई है जिनमें,
इस सभ्यता की नींव, रखी है जिसने,
कायम, परम्पराएँ है जिनसे,
कहानी मान्यताओं की, जीवित है जिनसे,
वो खुद, अब मृत सी हुई है....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

शेष हैं बची, विलाप की चंद बूँदें,
कई टूटे से सपने, कई लुटे से घरौंदे,
सूखे से खेत, बंजर सी जमीं,
हरीतिमा प्रीत की, लहलहाती थी जिनसे,
वो खुद, अब सूख सी गई है....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

कोई आता नहीं, अब तीर इनके,
अब लगते नहीं यहाँ, मेले बसंत के,
स्पर्श कोई भी, इसे करता नहीं,
कभी धुलते थे जहाँ, सात जन्मों के पाप,
वो खुद, अब अछूत सी हुई है.....

चंचल सी इक बहती नदी, थम सी गई है!

Wednesday 28 November 2018

अजीब से फासले

बड़े अजीब से, हैं ये फासले....

इन दूरियों के दरमियाँ,
जतन से कहीं, 
न जाने कैसे, मन को कोई बांध ले..

अजीब से हैं ये फासले....

अदृश्य सा डोर कोई,
बंधा सा कहीं, 
उलझाए, ये कस ले गिरह बांध ले...

अजीब से हैं ये फासले....

जब तलक हैं करीबियाँ,
बेपरवाह कहीं,
याद आते हैं वही, जब हों फासले...

अजीब से हैं ये फासले....

सिमट आती है ये दूरियाँ,
पलभर में वहीं,
इन फासलों से जब, कोई नाम ले...

अजीब से हैं ये फासले....

फिर गूंजती है प्रतिध्वनि,
वादियों में कहीं,
दबी जुबाँ भी कोई, गर पुकार ले ....

अजीब से हैं ये फासले....

पैगाम ले आती है हवाएँ,
दिशाओं से कहीं,
इक तरफा स्नेह, फासलों में पले....

अजीब से हैं ये फासले....

इक अधूरा कोई संवाद,
एकांत में कहीं,
खुद ही मन, अपने आप से करे...

अजीब से हैं ये फासले....

Monday 26 November 2018

अस्ताचल

ऐ मन चंचल! अवश्यम्भावी है अस्ताचल!
पर धीरज रख, रश्मि-रथ फिर लौट आएगी कल....

कर, तू जितनी मर्जी चल,
आवरण, तू चाहे जितने भी बदल,
दिशा, तू चाहे कोई भी निकल!
मचल! मेरे मन, तू और जरा मचल!
निश्चय है अस्ताचल!

उद्दीप्त होते सूरज को देखो,
प्रचण्ड होती, किरणों को परखो,
प्रभा, इनके भी होते निर्बल!
अस्तगामी है सब, अस्त हुए ये चल,
निश्चय है अस्ताचल!

पर संयम रख, अरुणोदय फिर भी होगा कल....

उद्दीप्त होते ये प्रभा किरण! 
ये प्रदीप्त राहें, आभाएं है अस्तगामी,
गतिशील क्षण, गतिमान हर-पल!
यह ज्वलंत वर्तमान, भूतकाल है कल,
निश्चय है अस्ताचल!

पर संयम रख, वर्तमान फिर से आएगा कल....

बस, ये मन में ध्यान रहे,
शीघ्रता में, तेरे ये कदम ना डिगें,
गिर, फिर उठ कर तू सम्हल!
ये आशा, ये सपने, ये लक्ष्य ना बदल!
आए चाहे अस्ताचल!

चलना ही है, इस जीवन का हल,
या समाप्त हो जाएँ ये राहें, 
या प्रभाविहीन हो जाए ये आभाएं,
ऊषा-किरण, फिर लौट आएगी कल!
आने दो ये अस्ताचल!

ऐ मन चंचल! अवश्यम्भावी है अस्ताचल!
पर धीरज रख, रश्मि-रथ फिर लौट आएगी कल....

Saturday 24 November 2018

25 वर्ष: संग मद्धम-मद्धम

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण...

हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

++++++++++++++++++++++++++++++++++++
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो विश्वास, चले परस्पर!
संग, 25 वर्षों तक, इक पथ पर,
विश्वास कहाँ होता खुद पर,
अचम्भित करता सफर,
चल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
दो युग बीते, सदियाँ बीती!
दो दीप जले, कितनी ही रतियाँ बीती,
इस आंगण, हर बतियाँ बीती,
उम्र की, संझिया बीती,
हर क्षण, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....

फिक्र किसे, ये उम्र ढ़ली!
ढ़लती रातों में, है जब हमराह कोई,
आँखों-आँखो में, हर रात ढ़ली,
बढती उम्र, के सौगात,
बाँट चले, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
मना-मनौवल, रास-विहार!
रूठे पल में, पल-पल इक मनुहार,
जीते दोनो, इक दूजे से हार,
प्यारा सा, ये व्यापार,
बढ़ रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....

दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....
हो आरूढ़, रजत रथ पर!
हुए अग्रसर, इक नवीन सफर पर,
प्रदीप्त कामना, के पथ पर,
साँसों का, ये दीपक,
जल रहा, संग-संग मद्धम-मद्धम.....
साल दर साल......
यूँ बीत रहा मद्धम-मद्धम,
दो मन, दो धड़कन,
इक संग, रहते हैं इक आंगण....