Wednesday 10 May 2017

इक खलिश

पलकें अधखुली,
छू गई सूरज की किरण पहली,
अनमने ढंग से फिर नींद खुली।।।
मन के सूने से प्रांगण में दूर तलक न था कोई,
इक तुम्हारी याद! निंदाई पलकें झुकाए,
सामने बैठी मिली...!

मैं करता रहा,
उसे अपनाने की कोशिश,
कभी यादों को भुलाने की कोशिश…
रूठे से ख्वाबों को निगाहों में लाने की कोशिश,
तेरी मूरत बनाने की कोशिश…
फिर एक अधूरी मूरत....!

क्या करूँ?
सोचता हूँ सो जाऊँ,
नींद मे तेरी ख्वाबों को वापस बुलाउँ,
फिर जरा सा खो जाऊँ,
मगर क्या करूँ...
ख्बाब रूठे है न मुझसे आजकल....!

इन्ही ख्यालों में,
इक पीड़ सी उठी है दिल में,
चाह कोई जगी है मन मॆं,
अब तोड़ता हूँ दिल को धीरे धीरे तेरी यादों में,
वो क्या है न, चाहत में...
रफ्ता रफ्ता मरने का मजा ही कुछ और है...!

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