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Friday, 11 December 2020

सूना गगन

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

देखती हैं, तुझको ही ये चारो दिशाएँ,
झुक-झुक कर, क्षितिज पर, तुझको बुलाएं,
तारे हैं कई, पर विरान है गगन, 
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

कौन जाने, किस घड़ी, छा जाए घटा,
चमके बिजलियाँ, हो न, सुबह सी ये छटा,
घिर न जाए, तूफानों में, गगन,
तुम बिन सर्वदा!

झाँक लेना, सूना सा, गगन भी यदा-कदा!
इक छवि, तेरी ही दिखलाएगा सदा!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 6 September 2020

"वो कौन" रहे तुम

मौन रहे तुम, हमेशा ही, "वो कौन" रहे तुम!
देखा ना तुमको, जाना ना तुमको!
संभव था, पा लेता, इक अधूरा सा अनुभव!
गर एहसासों में, भर पाता तुमको!

पर, शायद, शंकाओं के बंद घेरों में थे तुम!
या अपने होकर भी, गैरों में थे हम!
कदाचित, सर्वदा सारे अधिकारों से वंचित!
जाने क्यूँ,  रहा फिर भी चिंतित!

कोशिश है, बस यूँ , गढ़ लूँ इक छवि तेरी!
चुन लूँ उधेर-बुन, बुन लूँ यूँ तुमको!
कर लूँ बातें, समझाऊँ क्यूँ होती है बरसातें?
किंचित सूनी सी हैं, क्यूँ मेरी रातें!

छवि में, मौन रहे तुम, "वो कौन" रहे तुम!
कह भी पाती, क्या वो छवि मुझको?
शंकाकुल मन तेरा, दीपक तले जगा अंधेरा,
बुझ-बुझ जलता, विह्वल मन मेरा!

उभरेंगे अक्षर, कभी तो उन दस्तावेजों पर!
पलट कर पन्ने, तुम पढ़ना उनको,
बीते हर किस्से का, उपांतसाक्षी होऊँगा मैं,
जागूंगा तुममें,  फिर ना सोऊंगा मैं!

यूँ भी उपांतसाक्षी हूँ मैं, हर शंकाओं का!
जाने अंजाने, उन दुविधाओं का,
उकेरे हैं जहाँ, एकाकी पलों के अभिलेख,
बिखेरे हैं जहाँ, अनगढ़े से आलेख!

पर मौन रहे तुम, सर्वदा "वो कौन" रहे तुम!
भावहीन रहे तुम, विलीन रहे तुम!
संभव था, ले पाता, वो अधूरा सा अनुभव!
गर सुन पाता, तेरे धड़कन की रव!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
...............................................................
उपांतसाक्षी - वह साक्षी या गवाह जिसने किसी दस्तावेज़ के उपांत या हाशिये पर हस्ताक्षर किया हो या अँगूठे का निशान लगाया हो।

Wednesday, 8 July 2020

तुम न बदले

धुंधले हुए, स्वप्न बहुतेरे,
धुंधलाए,
नयनों के घेरे,
धुंधला-धुंधला, हर मौसम,
जागा इक, चेतन मन!
मौन अपनापन,
वो ही,
सपनों के घेरे!

धूमिल, प्रतिबिम्बों के घेरे,
उलझाए,
उलझी सी रेखाएं,
बदलते से एहसासों के डेरे,
अल्हड़, वो ही मन,
तेरा अपनापन,
तेरे ही,
ख्यालों के घेरे!

बदली छवि, तुम न बदले,
तुम ही भाए,
अश्रुसिक्त हो आए,
ज्यूँ सावन, घिर-घिर आए,
भिगोए, ये तन-मन,
वो ही छुअन,
वो ही,
अंगारों के घेरे!

अंतर्मन, सोई मौन चेतना,
जग आए,
दिखलाए मुक्त छवि,
लिखता जाए, स्तब्ध कवि,
करे शब्द समर्पण,
संजोए ये मन,
तेरे ही,
रेखाओं के घेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Sunday, 9 December 2018

मोहक दर्पण

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

प्रतिकृति दिखलाता है वो मेरी,
बेशक कुछ कमियाँ गिनवाता है वो मेरी,
दिखलाता है, वो व्यक्तित्व मेरा,
बतलाता है, ये दामन दागी है या कोरा,
मोह लिया है, यूँ जिसने मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

पुण्य-पाप के, हम सब हैं वाहक,
निष्पापी होने का भ्रम, पालते हैं नाहक,
मन के ये भ्रम, तोड़ता है बिंब,
नजरें फेर जब, बोलता है प्रतिबिम्ब,
दिखलाता है, इक नया रूप मेेेेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम...

अपना अक्श, ढूंढने को अक्सर,
अपना परिचय खुद से, पाने को अक्सर,
जाता हूँ मैं, सम्मुख दर्पण के,
उभर आता है, समक्ष मेरे मेरा ही सच,
दिखलाता है, कैसा है मन मेरा,
मोहक है वो ही दर्पण.....

छवि अपनी, मैं तकता हूँ जिसमें हरदम,
मोहक है मुझको, वो ही दर्पण....

Saturday, 3 March 2018

व्याप्त सूनापन

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

छवि उस तारे की रमती है मेरे मन!
वो जा बैठा कहीं दूर गगन,
नभ विशाल है कहीं उसका भवन!
उस बिन सूना मेरा ये आँगन?
छटा विहीन सा है लगता, अब क्यूं ये गगन?
क्यूं वो तारे, आते नहीं अब इस आँगन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये अंधियारापन?
क्या पर्याप्त नहीं, छोटा सा मेरा ये आँगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

कवि मन रमता इक वो ही आरोहण!
क्या भूला वो मेरा ही गायन?
जर्जर सी ये वीणा मेरे ही आंगन!
असाध्य हुआ अब ये क्रंदन,
सुरविहीन मेरी जर्जर वीणा का ये गायन!
संगीत बिना है कैसा यह जीवन?
व्याप्त हुआ क्यूं ये बेसूरापन?
क्या पर्याप्त नहीं, मेरे रियाज की ये लगन?

क्यूं व्याप्त हुआ अनचाहा सा सूनापन?
क्या पर्याप्त नहीं, इक पागल सा दीवानापन?

Thursday, 23 June 2016

चिरन्तन प्रेम तुम

चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि,
हो चिरन्तन प्रेम तुम.....

असीम घन सी वो, है चाह मुझे जिस छवि की,
सजल इन पुतलियों में, है अमिट छाप बस उसी की,
प्राण मेरे पल रहे, अनन्त चाह बस उस छवि की,
पर असीम सी वो, राह तकता रहा मैं जिस छवि की।

चित्र अमिट सी छपी है, नैनों में बस उसी की,
श्वास में उनको छिपाकर, राह तकुँ मैं बस उसी की,
असीम घन सी शून्य मन में ही वो विचर रही,
मन के मिलन मंदिर में सजी सदा से ही है वो छवि।

यादों में पहर सूने बिता, किस प्रांत में वो जा छुपी,
मैं मिटूँ प्रिय की याद में, मिटी ज्यों तप्त रक्त दामिनी,
दीप सा युग-युग जलूँ, जली ज्युँ रूप वो चाँदनी,
चिरन्तर प्रेम अनुरागिनी, सजल पुतलियों मे तेरी छवि।

हो, मेरी चिरन्तन प्रेम तुम........

Sunday, 12 June 2016

छवि तुम्हारी

छवि लिए कुछ तारों सी उर में तुम हो समाए,
पलकों में, प्राणों में स्मृति बन कर तुम हो आए.....

संचित कर लूँ मैं चंचलता इन नैनों की नैनों में,
महसूस करूँ मैं अरूणोदय तेरे चेहरे की आभा में,
देखूँ मैं रजनी की तम सी परछाई तेरे ही जूड़े में,

स्वप्नमय आभा लिए सपनों में तुम हो समाए,
नींदों मे, ख्वाबो में जागृति बन कर तुम्ही हो छाए ....

संचित कर लूँ मैं हाला तेरे अधरों की प्याली में,
महसूस करूँ मैं रंग जीवन के तेरे नैनों की लाली में,
देखूँ मैं ख्वाब सुनहरे तेरे आँचल की हरियाली में,

मधुर राग कोयल की सपनों मे तुमने ही गाए,
स्वर में, काया में विस्मित छाया सी तुम गहराए....,

Friday, 27 May 2016

वो चाय जो आदत बन गई

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सुबह की मंद बयार तन को सहलती जब,
अलसाई नींद संग बदन हाथ पाँव फैलाते तब,
अधखुले पलकों में उभरती तभी एक छवि,
चाय की प्याली हाथों में ले जैसे सामने कोई परी,
स्नेहमई मूरत चाय संग प्यार छलकाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

चाय की वो चंद बूँदें लगते अमृत की धार से,
एहसास दिलाते जैसे छलके हो मदिरा उन आँखों से,
सिंदुरी मांग सी प्यारी रंग दमकती उन प्यालों में,
चूड़ियों की खनखन के संग चाय लिए उन हाथों में,
अलबेली मूरत वो मन को सदा लुभाती रही,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

सांझ ढ़ले फिर कह उठते वो चाय के प्याले,
कुछ फुर्सत के मदहोश क्षण संग मेरे तू और बीता ले,
जहाँ बस मैं हुँ, तुम हो और हो नैन वही दो मतवाले,
तेरी व्यथा कब समझेंगे हृदयविहीन ये जग वाले,
मनमोहिनी सूरत वो चाय संग तुझे पुकारती,

वो लजीज एक प्याली चाय जो अब आदत बन गई.....

Thursday, 19 May 2016

नभ पर वो तारा

नभ पर हैं कितने ही तारे, एकाकी क्युँ मेरा वो संगी?

वो एकाकी तारा! धुमिल सी है जिसकी छवि,
टिमटिमाता वो प्रतिक्षण जैसे मंद-मंद हँसता हो कोई,
टिमटिमाते लब उसके कह जाती हैं बातें कई,
एकाकी सा तारा वो, शायद ढूंढ़ता है कोई संगी?

वो एकाकी तारा! नित छेड़ता इक स्वर लहरी,
पुकारता वो प्रतिक्षण जैसे चातक व्यग्र सा हो कोई,
टिमटिमाते लब जब गाते गीत प्यारी सी सुरमई,
है कितना प्यारा वो, पर उसका ना कोई संगी!

वो एकाकी तारा! मैं हूँ अब उसका प्रिय संगी,
कहता वो मुझसे प्रतिक्षण मन की सारी बातें अनकही,
टिमटिमाते लब उसके हृदय की व्यथा हैं कहती,
एकाकी तारे की करुणा में अब मैं ही उसका संगी!

Friday, 4 March 2016

जब जब तुम हँसती हो

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो,

राग मल्हार बज गए तेरे हँसने से,
गीत बादलों ने अब छेड़ा है पीछे से,
बूँदों की झमझम कर रही करताल,
घटाएँ नृत्य कर रही ऩभ में विकराल।

लावण्य चेहरे की बढ़ जाती है जब तुम हसती हो,,

निराली छवि निखरी है चाँदनी सी,
होठों पर खिल गई हजार कलियाँ भी,
चाँद भी देखो शरमा रहा सामने नभ में,
तारों की बारात चल प़ड़ी आपके साथ में।

मोहक जीवन हो जाता है जब जब तुम हसती हो,

इक इक हँसी आपकी मरहम सी,
घाव हजार दुखों का जीवन के ये भर देती,
घायल चातक मैं आपके चितवन का,
आपकी मुस्कुराहट के मरहम का मैं रोगी।

तेरे सुर मे कोयल गाती है, जब जब तुम हसती हो।

राग ये कैसी छिड़ गई हँसने से आपके,
कूक कोयल की भूली है गीतों में आपके,
इस सुर की बहार फैली है अब चारो ओर,
मैं आपके गीतों का प्रेमी, है मेरा मन विभोर।

राग नए नए बन जाते हैं,जब जब तुम हँसती हो।