Monday 4 March 2019

अनवरत

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

विवश हैं, या हैं बेचारे?
किसी वचनवद्धता के मारे!
या अपनी ही प्रतिबद्धता से हारे!
हैं ये कटिबद्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

आबद्ध, हैं ये किसी से?
या हैं स्वतंत्र, रव के सहारे!
अनन्त भटके, किस को पुकारे!
हैं ये प्रलब्द्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

पल-भर, को ना ठहरे!
अनन्त राह, निर्बाध गुजरे!
चुप-चुप, गुमसुम से बेसहारे!
है ये विश्रब्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

अस्तब्ध, गतिमान ये!
विश्रब्ध, भरे विश्वास से!
निश्वांस, राह अनन्त ये चले!
हैं ये अदग्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Saturday 2 March 2019

रुबरु

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

चंद लम्हे ही रहे, बस वो साथ मेरे,
ऐसा लगा, जैसे वो है कितने खास मेरे,
जग से गए, सोए एहसास मेरे
उम्र सारी, जीने लगे सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

रुबरु इक आवाज, हुआ साथ मेरे,
हर-पल गूँज बनकर, वो रहा साथ मेरे,
मधु सी मिठास, बातों में भरे,
अब न रहते उदास, सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

न जाने, ये क्या हुआ था साथ मेरे,
ऐसा लगा, मैं खुद न था अब साथ मेरे,
कुछ मेरा, अब न था पास मेरे,
रुबरु यूँ हुए, मुझसे सारे ख्वाब मेरे!

जरा सा बहक गए, वो जब साथ मेरे,
रुबरु हो गये, सारे ख्वाब मेरे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Thursday 28 February 2019

चल कहीं और

तलाश-ए-सुखन, ऐ दिल, चल कहीं और!

हवाओं में घुली, ये कैसी है घुटन,
फिज़ाओं में कैसी, घुल रही है चुभन,
ये जुनून, ये चीखें, ये मातम,
कराहते बदन, असह्य मन का ये शोर,
कैसा है दौर, ये कैसा है दौर!

तलाश-ए-सुखन, ऐ दिल, चल कहीं और!

हैरान हूँ बस, इन्सानी अक्ल पे,
भेड़िया हैं वो, इन्सानों की शक्ल में,
नादान नहीं, वो सब हैं जानते,
बस जुनून-ए-सर, आतंक का है ठौर,
कैसा है दौर, ये कैसा है दौर!

तलाश-ए-सुखन, ऐ दिल, चल कहीं और!

बस ये सोचकर, है बेचैन मन,
वो अपनी जान के, खुद हैं दुश्मन,
पिस जाएंगे, शेष निरीह जन,
तड़पाएंगे हमें, टूटी चूड़ियों का शोर,
कैसा है दौर, ये कैसा है दौर!

तलाश-ए-सुखन, ऐ दिल, चल कहीं और!

फिर ना रंगेंगी, सूनी सी मांगें,
यूँ ही जगेगी, शुन्य ताकती आँखे,
रोते कटेंगी, वो जागती रातें,
सिसकियाँ, झिंगुर संग करेगीे शोर,
कैसा है दौर, ये कैसा है दौर!

सह जाएं सब, वो होंगे कोई और,
तलाश-ए-सुखन, ऐ दिल, चल कहीं और!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Monday 25 February 2019

संघर्षरत इतिहास

क्या आज भी,
रच रहे
हम
कोई संघर्षरत इतिहास...

बीता हास,
बना है उपहास,
है विश्वास,
रचेंगे हम नया इतिहास!

विषैले तीर
कुछ,
हैं चुभे इतिहास में,
दंश
सहते रहे,
रक्त
बहते रहे,
देश की हास में,
रक्त-रंजित
है मातृभूमि,
शांति की
आस में,
रक्ताभ आभा,
आ रही इतिहास से....

रक्त के
फव्वारे,
यत्र-तत्र फूटते रहे,
चुभते
अनगिनत तीर , 
शरीर पर
लिए
हम फिरते रहे,
हुई
मानवता,
लथपथ
निरीहों के खून से,
विवशता ,
झलक रही इतिहास से....

बीता हास,
कर रहा परिहास,
सशंकित है
फिर भविष्य का इतिहास!

क्या आज भी,
रच रहे
हम
कोई संघर्षरत इतिहास...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Sunday 24 February 2019

शामिल

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!
यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

यूँ तो न था, किसी पर ऐतबार,
यूँ ही, हुआ था एक बार,
यूँ ही, करता रहा मैं बार-बार,
यूँ ही चला, छोड़ कर वो किस्से हजार!

यूँ न था,आसाँ मेरा वादों से मुकर जाना!
यूँ न था, ये मेरी फितरत में शामिल!

यूँ तो था, ये हँसी खेल उनका,
यूँ था, चाह में मैं ही रुका,
यूँ ही, मिला बस एक धोखा,
यूँ ही छेड़कर, तार दिल के वो चला!

यूँ तो इक, वहम ने ही बनाया ये फसाना!
यूँ भी, है न कुछ चाहत में हासिल!

यूँ, गुजरता न मैं उस राह पर,
यूँ, रुका मैं इक आह पर,
यूँ ही, मासूम सी निगाह पर,
यूँ तो रहा, मेरी हाल से वो बेखबर!

यूँ तिल-मिलाना, बेसबर हो लौट जाना!
यूँ ही था, इस इबादत में शामिल!

यूँ तो, कागजों सी है जिन्दगी,
यूँ ये, रद्दी हुई और जली,
यूँ ही, या आँसूओं से ये गली,
यूँ ही, है भीगी, बुझी सी ये जिन्दगी!

यूँ ही मुस्कुराना, या यूँ खुद ही रूठ जाना!
यूँ न था, मेरी आदत में शामिल!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

Tuesday 19 February 2019

करार

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

भीगी है ये, आँखें क्यूँ,
यूँ फैलाए है पर, आसमां पे क्यूँ,
ना तू, इस कदर मचल,
आ जा, जमीं पे साथ चल,
मुझ पे कर ले, ऐतबार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

परेशान हैं, इतना क्यूँ,
हैरान इस कदर, ये तेरे नैन क्यूँ,
गुम है, बातों में खनक,
अधूरी सी, आँखों में ललक,
तू कर, काबू में करार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

धड़कनें हैं, तेज क्यूँ,
अन्तरमन तेरा, निस्तेज क्यूँ,
लड़खड़ाए से कदम,
छूट जाए न, कहीं तेरा दम,
एक, तू ही है मेरा यार!

ऐ बेकरार दिल, खो रहा है क्यूँ तेरा करार?
क्यूँ तुझे हुआ है, फिर किसी से प्यार?

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

वो बोलती रही

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!

थी कुछ ऐसी, उसके स्वर की संरचना,
मुग्ध हुए थे सारे, स्तब्ध हुए तारे,
उस पल तो हम भी थे, खुद को हारे,
कोयल, भूल गई थी कूकना,
मुखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल बहती रही रचना!

नव-पल्लव बन, पल्लवित हुए थे स्वर,
महुए की रस में, प्लावित वे स्वर,
उनकी अधरों पर, आच्छादित होकर,
स्वर, सीख रहे थे इठलाना,
सुघड़ हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इठलाती बहती रही रचना!

मोहक है वो स्वर, उस कंठ है कलरव,
स्वर ने पाया, उस कंठ का वैभव,
डूबे आकण्ठ, उनकी जादू में खोकर,
स्वर, जान गई थी मुस्काना,
प्रखर हो चली थी, साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, इतराती बहती रही रचना!

अब मचलकर, बोल उठे वो गूंगे स्वर,
सँवर कर, डोल रहे वो गूंगे स्वर,
झरने सी, कल-कल बहती मन पर,
स्वर ने था, जीवन को जाना,
जीवन्त हो चली , साधारण सी रचना!

वो बोलती रही, कल-कल झरता रहा झरना!
जीती रही, साधारण सी अंकित रचना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
This poem has been Selected as FEATURED POST at INDIBLOGGER. Thanks to All. Regards.

Monday 18 February 2019

यूँ न था बिखरना

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

छोड़ कर यादें, वो तो तन्हा चला,
तोड़ कर अपने वादे, यूँ कहाँ वो चला,
तन्हाइयों का, ये है सिलसिला,
यूँ इस सफर में, तन्हा न था चलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

कली थी, अभी ही तो खिली थी!
सजन के बाग की, मिश्री की डली थी!
था अपना वही, एक सपना वही,
यूँ न बाहों से उनकी, था निकलना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

गुजर चुके अब, सपनों के दिन,
अब गुजरेंगे कैसे, वक्त अपनों के बिन,
न था वास्ता, तंज लम्हों से मेरा,
यूँ तंग राह में अकेले, न था गुजरना मुझे!

यूँ न टूटकर, असमय था बिखरना मुझे...

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा