Monday 4 March 2019

अनवरत

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

विवश हैं, या हैं बेचारे?
किसी वचनवद्धता के मारे!
या अपनी ही प्रतिबद्धता से हारे!
हैं ये कटिबद्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

आबद्ध, हैं ये किसी से?
या हैं स्वतंत्र, रव के सहारे!
अनन्त भटके, किस को पुकारे!
हैं ये प्रलब्द्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

पल-भर, को ना ठहरे!
अनन्त राह, निर्बाध गुजरे!
चुप-चुप, गुमसुम से बेसहारे!
है ये विश्रब्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

अस्तब्ध, गतिमान ये!
विश्रब्ध, भरे विश्वास से!
निश्वांस, राह अनन्त ये चले!
हैं ये अदग्ध धारे!

अनवरत, वक्त के प्रतिबद्ध धारे!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

14 comments:

  1. बहुत खूब
    बहुत सुंदर सृजन

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  2. हमेशा की तरह बहुत खूब.........

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-03-2019) को "आँगन को खुशबू से महकाया है" (चर्चा अंक-3266) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत शानदार कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
    iwillrocknow.com

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  5. शुक्रिया आभार आदरणीया डा. जेनी।

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  6. वक्त की विवशता भी सृष्टि के नियमों में बंधी है। भावपूर्ण रचना वक्त की प्रतिबद्धता को दर्शाती। आप के चिरपरिचित अंदाज में। शुभकामनाएं।

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