Sunday 3 January 2016

मन का हिरण

हिरण सदृश चंचल मन,
दौड़े चहुँ ओर वन उपवन,
संग लिए चपल चितवन।

गति मन की अति अद्भुत्,
इत देखे ना कभी उत्,
समझ हृदय तू बन प्रबुद्ध।

मन पर तू रख नियंत्रण,
वश कर इंन्द्रियों को क्षण-क्षण,
ढ़क ले प्राणों का आवरण।

पराशक्ति ईश्वर से

प्राण बसते उस सूक्ष्म पराशक्ति में,
रमता है जो घट-घट मे,
वो आँसूओं में वो क्रंदन में,
वेदनाओं मे निराशाओं मे,
सन्नाटों के घन आहटों मे,
रमता वो हिम के वियावानों में,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।

तेरे बगैर आँसुओं के मौन,
वेदनाओं के करुण क्रन्दन,
निराशाओं के घनघोर घन,
आहटों के प्रतिपल तेज चरण,
साए चुपचाप, प्रतिविम्ब मौन,
सन्नाटों के क्षण व्याकुल मन,
वेदना तुम झेलो तभी तुम्हे मानूँ।

जग की तुम संताप हर लो,
वेदना जन-जन की ले लो,
आशाओं की नव रश्मि दो,
प्रतिविम्ब को विम्बित कर दो,
मौन को स्वर साधना दे दो,
ब्रहमांड में तुम हुंकार भर दो,
पीड़ा जग की हरो तभी तुम्हे मानूँ।

तुम अगम तुम अगोचर,
विराट तुम पर अन्तर्धान,
मैं तुच्छ तुझे कैसे पहचानूँ,
दृष्टि है पर तू नही दृष्टिगोचर,
महादृष्टि दो तुझे देख पाऊँ,
तुम हृदय बसो तभी तुम्हे मानूँ।
जग के संताप हरो तभी तुम्हे सम्मानूँ।

शायद तू रहती होगी वहाँ

चाँद की ओट के पीछे,
सितारों की हद से भी दूर,
गम की सरहदों के पार,
ख्वाबों में कहीं इक दुनियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

पर्वतों के सायों के पीछे,
मन की कल्पनाओं से भी दूर,
ख्यालों की सरहदों के पार,
हसीन सी कहीं है वादियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

हसरतों की सदाओं के पीछे,
रंजो-गम की पहुँच से भी दूर,
अवसाद-विसाद की सरहदों के पार,
मुखरित होती सुंदर सी कलियाँ,
शायद तू रहती होगी वहाँ।

Saturday 2 January 2016

मिलना-बिछड़ना! दोनो इक जैसे दिखते

मिलने का सुख,
बिछड़ने का दु:ख,
जैसे, सुबह की लालिमा,
संध्या वेला की लालिमा,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

फर्क बहुत थोड़ा इनमे,
मिलन में है माधूर्य,
सुबह की लालिमा की
मधुर ठंढ़क सी,
बिछड़ने की गर्म पीड़ा,
संध्या की लाली में
घुली उमस सी।
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

कुछ क्षण पश्चात्,
शान्त दोनों हो जाते,
न मिलन का सुख,
न विरह का दुःख,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

भँवड़े मिलते फूलों से,
माधूर्य पी जाते फूलों का,
रस लेकर उड़ जाते हैं,
पर खिल उठता 
फूलों का मन,
बिछड़ने की पीड़ा,
घुल जाती मिलन के,
खुशी भरे एहसास मे,
दोनो इक जैसे ही दिखते हैं!

वो पाषाण हृदय क्या जाने?

वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

व्यथा होती है सागर सी गहरी,
पीड़ा होती है कितनी असह्य,
टूटते हैं तार कितने ही जीवन के,
आशाओं की, उम्मीदों की, भावनाओं की,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

तोड़ते है जो हृदय किसी का,
आशाओं के फूल वो मसल देते हैं,
तोड़ जाते है तार मन के प्रांगण के,
देख मगर कहाँ पाता है कोई आँसू, 
विह्वलता का, नीरवता का, अधीरता का,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो, पीड़ा भी होगी!

गर रखते हो भावुक हृदय,
मत तोड़ना किसी हृदय की आशा,
समझो आँखों की विवश भाषा,
आशाओं में बसता इक जीवन,
भावुकता का, विवशता का, आकंक्षाओं का,
वो पाषाण हृदय क्या जाने?
हृदय है तो पीड़ा भी होगी!

तू शोकाकुल मत हो!

तू शोकाकुल मत हो!

एक जीवन ही तो छूटा है,
शाखा था ईक विशाल,
बस शाखा ही तो टूटा है,
छाए थे जिनके फलदार घने,
विधि ने बस इतना ही तो लूटा है।

तू शोकाकुल मत हो!

शाख गुलशन में और भी हैं,
निराशा तज, नई शाखा तू चुन,
एहसास जीवन का पाने को,
अधीर न हो, सहारा तू इक नई ढूंढ़,
या नीर तू खुद विशाल बन जा,
शीतल तू बन गैरों का तू छाया बन जा।

तू शोकाकुल मत हो!

फासले सदियों के

सदियों के हैं अब फासले,
दिल और सुकून के दरमियाँ,
पीर-पर्वतों के हैं अब दायरे,
सागर और साहिल के दरमियाँ।

खामोंशियों को गर देता कोई सदाएँ,
दिल की गहराईयों मे कोई उतर जाए,
साहिल की अनमिट प्यास बुझा जाए,
दूरियाँ ना रहे अब इनके दरमियाँ।

सागर-लहरों को मिल जाता किनारा,
पर्वत झूम उठता देख दिलकश नजारा,
साहिलों के भी सूखे होठ भीग जाते,
फासले जो हैं दरमियाँ वो मिट जाते।