Sunday 3 November 2019

पराई साँस

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

हूँ सफर में, साँसों के शहर में!
इक, पराए से घर में!
पराई साँस है, जिन्दगी के दो-पहर में!
चल रहा हूँ, जैसे बे-सहारा,
दो साँसों का मारा,
पर भला, कब कहा, मैंने इसे!
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

बुलाऊँ क्यूँ, उसको सफर में!
अंजाने, इस डगर में!
पराया देह है, क्यूँ परूँ मैं इस नेह में!
बंध दो पल का, ये हमारा,
दो पल का नजारा,
टोक कर, कब कहा, मैने उसे,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

चले वो, अपनी मर्जी के तले!
इक, अपनी ही धुन में!
अकारण प्रेम, पनपाता है वो मन में!
हूँ इस सफर का, मैं बंजारा,
दे रहा ये मौत पहरा,
इस प्रवाह को, मैने कब कहा,
तू साथ चल!

मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा

17 comments:

  1. आप कितना साफ लिखते हैं! मैं आपकी रचनाओं का प्रशंसक हूँ। बहुत सिखने को मिलता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी सराहना ही हमारा मनोबल बढाती है। इस सम्मान हेतु सदैव आभारी हूँ आदरणीय प्रकाश जी।

      Delete
  2. बहुत सुंदर कविता।

    ReplyDelete
  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-11-2019) को   "रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक"  (चर्चा अंक- 3510)  पर भी होगी। 
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    -- 
    दीपावली के पंच पर्वों की शृंखला में गोवर्धनपूजा की
    हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई।  
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  4. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 04 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
  5. अनजान डगर और अकेले चलने का बायस .... सच है कोई किसी को नहीं बुलाता पर कोई आ जाये तो अच्छा लगता है ...

    ReplyDelete
  6. सुन्दर रचना. . शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  7. मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
    इस एक पंक्ति में ही आपने पूरे जीवन का सार कह दिया. बहुत खूब 👌👌👌

    ReplyDelete
  8. आदरनीय पुरुषोत्तम जी , मन मुग्ध कवि का ये सार संवाद अद्भुत है | साँस ही तो आधार है , यही तो वो पतवार है जिसके बिना जीवन की नैया बेकार है | भावपूर्ण और मौलिक विषय पर आपका लेखन अचम्भित कर जाता है | बहुत खूंब !!!!!!!!!!!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. सराहना हेतु हृदयतल से आभार आदरणीया रेणु जी।

      Delete
  9. मन-मर्जी ये साँस की, वो चले या रुके!
    इस एक पंक्ति में ही आपने पूरे जीवन का सार कह दिया. बहुत खूब 👌👌👌

    ReplyDelete