Tuesday 10 January 2017

संकुचित पल

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

गर होते अंतराल, जो लम्बे से इस पल के,
तुम इठलाती-इतराती, अनथक सी करती फिर बातें,
रोक लेता तुम्हे मैं, उन अवलम्बित से पलों में ,
जिद जल्दी जाने की, तुम हमसे ना करते।

शरद ऋतु में जैसै, कुम्हलाया है ये पल भी,
कुछ कह दो अपने मन की, जाने वाला है ये पल भी,
विस्तार दे दो तुम इनको, देकर धड़कन की गर्मी,
सिमटकर बातों में तेरी, थम जाएगा ये पल भी।

ऐ पल! तू आकर बिखर, ठहर प्रहर दो प्रहर,
आ लेकर मीठी यादें, दे जा कुछ साँसों की सौगातें,
रोक लूँ अपने दिलवर को, बैठा लूँ बाँहें पकड़,
लम्बे हों बातों के पल, पल-पल फिर बीते ना प्रहर।

बिता लूँ मैं जीवन इस पल के, बाहों में तेरे,
क्या जाने फिर मिले ना मिले, ये पल, ये बाहों के घेरे,
सिमटते पलों की परिधि में, आओ हम ऐसे मिले,
जीवन के ये पलक्षिण, बिखरे साँसों संग तेरे।

संकुचित हैं कितने, ये पल आज दिन के,
बातों ही बातों में बीते, कैसे ये पल आज दिन के!

Monday 9 January 2017

नादान बेचारी

सोच रही वो बेचारी, आखिर भूल हुई क्या मेरी?

यूँ ही घर से निकल गया था वो अन्तर्मुखी,
दर्द कोई असह्य सी, सुलग रही थी उस मन में छुपी!
बिंध चुका था शायद, निश्छल सा वो अन्तर्मन,
अप्रत्याशित सी कोई बात, कर गई थी उसे दुखी!

स्नेह भरा दामन, फैलाया तो था उस अबला ने,
रखकर कांधे पे सर, हाथों से सहलाया भी था उसने,
नादान मगर पढ पाई ना, उसके अन्तर्मन की बातें,
दामन में छोड़ गया वो, बस विरहा की सौगातें!

मन में चोट लगे जो, वो घाव बड़ी दुखदायी,
तन सहलाते मिटे न पीड़ा, नादान समझ ना पाई,
अंजाने में भूल हुई क्या, बस वो जान न पाई,
तोड़कर विश्वास क्यूँ छोड़ चला वो सौदाई!

वो अन्तःमुखी, बाँट सका न पीड़ा कहकर,
निकल पड़ा घर से, मन में ही कोई जख्म भरकर,
राज रही गहराती ही, कोहरे सी खामोशी लेकर,
अब बाट जोहती वो, रुकी सी साँसे लेकर!!

Sunday 8 January 2017

मन की तलाश

वक्त के साथ आकांक्षाएँ जब मुँह मोड़ने लगे,
इक्षाओं के बादल जब उत्शृंखलता का साथ छोड़ने लगे,
तब जन्म लेने लगती है मन की सृजनशीलता,
ऐसे में व्यस्तताओं के हाथों विवश होने के बावजूद,
कई जरूरतों से बावस्त होने लगता है मन......
और कल्पनाशीलता भरने लगती है दिशाहीन उड़ान....
तब निकल पड़ता है मन कहीं और...
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उभर आते हैं आँखों में कई रंग जीवन के,
स्मृतिपटल पर उभर उठते हैं कई रूप अंकित होकर,
विशाल पेड़ खड़ी हो जाती हैं कहीं दामन फैलाए,
कभी लताएँ लपेट लेती हैं खुद में समेटकर,
खुद को पाता हूँ कभी अकेला ही अनन्त घाटियों में,
जब पुकारती हैं कहीं से विरानियाँ उन राहों की,
तब मन हो लेता है उन्हीं विरानियों के संग कहीं और,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उन खामोश राहों पे मन का बस एक ही संगी,
मैं और मेरी अव्यक्त सृजनात्मक कल्पना छटपटाती सी,
उत्पन्न होते कई मनोभाव कभी फूलों सी खिली,
रंग कई विविध से मन में लिए उन फूलों में भरती रही,
नई आकांक्षाओं की अब फिर खिल उठी है कली,
मन कहीं बह रहा उस शांत समुन्दर की ओर,
न कोई चाह, न कोई तृष्णा, बस तलाशता इक ठौर,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

Friday 6 January 2017

सर्द सुबह

कहीं धूँध में लिपटकर, खोई हुई सी हैं सुबह,
धुँधलाए कोहरों में कहीं, सर्द से सिमटी हुई सी है सुबह,
सिमटकर चादरों में कहीं, अलसाई हुई सी है सुबह,
फिर क्युँ न मूँद लूँ, कुछ देर मैं भी अपनी आँखें?
आ न जाए आँखों में, कुछ ओस की बूंदें!

ओस में भींगकर भी, सोई हुई सी है सुबह,
कँपकपाती ठंढ में कोहरों में डूबी, खोई हुई सी है सुबह,
खिड़कियों से झांकती, उन आँखों में खोई है सुबह,
फिर क्युँ न इस पल में, खुद को मैं भी खो दूँ?
जी लूँ डूब कर, कुछ देर और इस पल में!

फिर लौटकर न आएगी कोहरे में डूबी ये सुबह,
शीत में भींग-भींगकर फिर न थप-थपाएगी ये सुबह,
सर्दियों की आड़ में फिर न बुलाएगी ये सुबह,
फिर क्युँ न मैं भी हो लूँ, इन सर्द सुबहो संग?
बाँट लूँ गर्म साँसें, देख लूँ कुछ जागे सपने!

Saturday 31 December 2016

गतवर्ष-नववर्ष

बीत चला है अब गतवर्ष,
कितने ही मिश्रित अनुभव देकर,
आश-निराश के पल कितने ही,
ले चला वो दामन में अपनी समेटकर।

जा रहा वो हमसे दूर कही,
फिर ना वापस आने को,
याद दिलाएगा हरपल अपनी वो,
बीते लम्हों की भीनी सी सौगातें देकर।

रुनझुन करती आई थी वो,
पहलू में हर जीवन के संग खेली वो,
कहीं रंगोली तो कहीं ठिठोली,
कितने ही रंगों संग हो ली वो हँसकर।

सपने कितने ही टूटते देखे उसने,
अपनों का संग कितने ही छूटते देखे उसने,
पर निराश हुआ ना पलभर को भी वो,
नवजीवन ले झूमा फिर वो आशा की थुन पर।

अब गले लगाकर नववर्ष का,
सहर्ष स्वागत कर रहा है गतवर्ष,
विदाई की वेला में झूम रहा वो,
कितने ही नव अरमानों को जन्म देकर।

Friday 30 December 2016

मधुक्षण ले फिर आओ तुम

प्रिये, तुम फिर से आओ मधु-क्षण लेकर इस पल में....
है सूना सा मेरे हृदय का आँगन ,
है आतुर यह चिन्हित करने को तेरा आगमन...
यह अनहद अनवरत प्रतीक्षा कब तक?
लघु जीवन यह, लंबा ....इंतजार...!
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

क्युँ मुझको है एक हठीला सा विश्वास?
तुम्हारा निश्चय ही आने का ,
बेबस मन है क्युँ हर पल अकुलाहट में,
चू पड़ते हैं क्युँ इन आँख से आँसू .........
क्युँ तुमसे है मुझको अनहद प्यार....?
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

तुम घन सी लहराओं एक बार !
आतुर हैं मेरी भावनाओं के बादल ..
माधूर्य बरसाने को तुम पर,
समर्पित हूँ मैं पूर्णतः तुमको साधिकार !
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

हर आहट पर होता है मुझको ....
बस तुम्हारे आने का भ्रम,
खुली ये खिड़की, खुला ये आंगन,
और दो आँखें हैं नम...
बस शेष इतना ही  आभार.................!!!
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

यदि कहूँ मैं तुम हो ...
मेरे मधुक्षण की माधूर्य मधुमिता,
अतिरेक न होगा ये तनिक भी, हो गर तुमको विश्वास,
तुम चाहो तो आकर ले लेना....
मेरी इन सिक्त बाहों का हार.......
मधुक्षण ले तुम आ जाओं फिर एक बार !

Thursday 29 December 2016

आहत संवेदना

घड़ी सांझ की सन्निकट है खड़ी,
लग रहा यूँ हर शै यहाँ बिखरी हुई है पड़ी,
अपना हम जिसे अबतक कहते रहे,
दूर हाथों से अब अपनी ही वो परछाँई हुई।

विरक्त सा अब हो चला है मन,
पराया सा लग रहा अब अपना ही ये तन,
बुझ चुकी वो प्यास जो थी कभी जगी,
अपूरित सी कुछ आस मन में ही रही दबी।

थक चुकी हैं साँसे, आँखें हैं भरी,
धूमिल सी हो चली हैं यादों की वो गली,
राहें वो हमें मुड़कर पुकारती नही,
गुमनामियों में ही कहीं पहचान है खोई हुई।

संवेदनाएँ मन की तड़पती ही रही,
मनोभाव हृदय के मेरे, पढ ना सका कोई,
सिसकता रहा रूह ताउम्र युँ ही,
हृदय की दीवारों से अब गूँज सी है उठ रही।

बीत चुका भले ही वक्त अब वो,
पर टीस उसकी, आज भी डंक सी चुभ रही,
अब ढह चुके हैं जब सारे संबल,
काश ! ये व्यथा हमें अब वापस ना पुकारती !

शिकायतें ये मेरी आधार विहीन नहीं,
सच तो है कि सांझ की ये घड़ी भी हमें लुभाती,
गर संवेदनाएँ मेरी भावों को मिल जाती,
तब ये सांझ की घड़ी भी हमें भावविभोर कर जाती!

Friday 16 December 2016

दूर वहाँ

न है कोई, इक मेरे सिवा उस भूल-भुलैया के उस पार..

हाथों से जैसे छिटकी थी वो रश्मि-किरण सी,
ज्युँ दूर गगन में वापस जाता हो पाखी,
दूर होता रहा मैं उससे जितना,
उसकी यादें सिमटती रही उतनी ही पास भी.....

उस अंतिम छोर में अब कोई प्रतीक्षारत नहीं,
ना ही इस मोड़ में भी है कोई,
मैं रहा सदैव एकाकी, बूढ़ा बरगद, सिमटती नदी,
विलीन हुए सब सांध्य कोलाहल,
उड़ गए सुदूर जैसे सारे प्रवासी पाखी।

पिघली है बर्फ़ फिर इन वादियों में,
या फिर दिल में जगी है कोई आस पुरानी,
गोधूलि बेला,सिंदूरी आकाश, तुलसी तले जलता दीप,
वही अनवरत झुर्रियों से उभरती हुई,
तेरी मेरी जीवन की अनन्त अधुरी सी कहानी।

सपाट से हो चले वो तमाम स्मृति कपाट
अपने आप जब हो चलें हैं बंद,
तब अंतरपट खोले वो करती हो इंतजार
उस नव दिगंत असीम के द्वार,
शायद चलती रहे निरंतर यह असमाप्त अन्तर्यात्रा !

पर कोई तो नहीं मेरे लिए उस भूल-भुलैया के उस पार..