Thursday 29 December 2016

आहत संवेदना

घड़ी सांझ की सन्निकट है खड़ी,
लग रहा यूँ हर शै यहाँ बिखरी हुई है पड़ी,
अपना हम जिसे अबतक कहते रहे,
दूर हाथों से अब अपनी ही वो परछाँई हुई।

विरक्त सा अब हो चला है मन,
पराया सा लग रहा अब अपना ही ये तन,
बुझ चुकी वो प्यास जो थी कभी जगी,
अपूरित सी कुछ आस मन में ही रही दबी।

थक चुकी हैं साँसे, आँखें हैं भरी,
धूमिल सी हो चली हैं यादों की वो गली,
राहें वो हमें मुड़कर पुकारती नही,
गुमनामियों में ही कहीं पहचान है खोई हुई।

संवेदनाएँ मन की तड़पती ही रही,
मनोभाव हृदय के मेरे, पढ ना सका कोई,
सिसकता रहा रूह ताउम्र युँ ही,
हृदय की दीवारों से अब गूँज सी है उठ रही।

बीत चुका भले ही वक्त अब वो,
पर टीस उसकी, आज भी डंक सी चुभ रही,
अब ढह चुके हैं जब सारे संबल,
काश ! ये व्यथा हमें अब वापस ना पुकारती !

शिकायतें ये मेरी आधार विहीन नहीं,
सच तो है कि सांझ की ये घड़ी भी हमें लुभाती,
गर संवेदनाएँ मेरी भावों को मिल जाती,
तब ये सांझ की घड़ी भी हमें भावविभोर कर जाती!

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