Sunday 8 January 2017

मन की तलाश

वक्त के साथ आकांक्षाएँ जब मुँह मोड़ने लगे,
इक्षाओं के बादल जब उत्शृंखलता का साथ छोड़ने लगे,
तब जन्म लेने लगती है मन की सृजनशीलता,
ऐसे में व्यस्तताओं के हाथों विवश होने के बावजूद,
कई जरूरतों से बावस्त होने लगता है मन......
और कल्पनाशीलता भरने लगती है दिशाहीन उड़ान....
तब निकल पड़ता है मन कहीं और...
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उभर आते हैं आँखों में कई रंग जीवन के,
स्मृतिपटल पर उभर उठते हैं कई रूप अंकित होकर,
विशाल पेड़ खड़ी हो जाती हैं कहीं दामन फैलाए,
कभी लताएँ लपेट लेती हैं खुद में समेटकर,
खुद को पाता हूँ कभी अकेला ही अनन्त घाटियों में,
जब पुकारती हैं कहीं से विरानियाँ उन राहों की,
तब मन हो लेता है उन्हीं विरानियों के संग कहीं और,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

उन खामोश राहों पे मन का बस एक ही संगी,
मैं और मेरी अव्यक्त सृजनात्मक कल्पना छटपटाती सी,
उत्पन्न होते कई मनोभाव कभी फूलों सी खिली,
रंग कई विविध से मन में लिए उन फूलों में भरती रही,
नई आकांक्षाओं की अब फिर खिल उठी है कली,
मन कहीं बह रहा उस शांत समुन्दर की ओर,
न कोई चाह, न कोई तृष्णा, बस तलाशता इक ठौर,
किसी अन्तहीन सी तलाश में...न जाने कहाँ?

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