Sunday 27 December 2020

कैसा परिचय

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

फिर क्यूँ, मुड़ गई ये राहें!
मिल के भी, मिल न पाई निगाहें!
हिल के भी, चुप ही रहे लब,
शब्द, सारे तितर-बितर,
यूँ न था मिलना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

कैसी, ये परिचय की डोर!
ले जाए, मन, फिर क्यूँ उस ओर!
बिखरे, पन्नों पर शब्दों के पर,
बना, इक छोटा सा घर,
सजा ले, कल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

यूँ तो फूलों में दिखते हो!
कुनकुनी, धूप में खिल उठते हो!
धूप वही, फिर खिल आए हैं,
कई रंग, उभर आए हैं,
बन कर, अल्पना!

तुम, अपरिचित तो न थे कभी!
ना मैं अंजाना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
   (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Saturday 26 December 2020

कठपुतली

तू, क्यूँ खुद पर, इतना करे गुमान!
देने वाला वो, और लेने वाला भी वो ही,
बस, ये मान!  क्यूँ बनता अंजान!
ढ़ल जाते हैं दिन, ढ़ल जाती है ये शाम,
उनके ही नाम!

ईश्वर के हाथों, इक कठपुतली हम!
हैं उसके ही ये मेले, उस में ही खेले हम,
किस धुन, जाने कौन यहाँ नाचे!
हम बेखबर, बस अपनी ही गाथा बाँचे,
बनते हैं नादान!

ये है उसकी माया, तू क्यूँ भरमाया!
खेल-खेल में, उसने ये रंग-मंच सजाया,
सबके जिम्मे, बंधी इक भूमिका,
पात्र महज इक, उस पटकथा के हम,
बस इतना जान!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
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एक सत्य प्रसंग से प्रेरित .....

दान देते वक्त, संत रहीम, जब भी हाथ आगे बढ़ाते थे, तो शर्म से उनकी नज़रें नीचे झुक जाती थी।

यह बात सभी को अजीब सी लगती थी! इस पर एक संत ने रहीम को चार पंक्तियाँ लिख भेजीं -

"ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ, त्यों त्यों नीचे नैन।।"

अर्थात्, रहीम! तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें, तुम्हारे नैन, नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?

संत रहीम ने जवाब में लिखा -

"देनहार कोई और है, भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं, तासौं नीचे नैन।।"

अर्थात्, देने वाला तो, मालिक है, परमात्मा है, जो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ, रहीम दे रहा है। यही सोच कर मुझे शर्म आती है और मेरी नजरें नीचे झुक जाती हैं।

Thursday 24 December 2020

झील सा, अधबहा

गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!

मिल जाए, तो अपना लूँ, 
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!

दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!

पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)