गुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
पर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,
इक दीवाने से, कहना है!
मिल जाए, तो अपना लूँ,
माना, इक फलक है, बिखरा सा,
खुद में, कितना उलझा सा,
बंधा या, अधखुला!
कितना, टूटा है,
उन टुकड़ों को, चुनना है!
दो होते, तो होती गुफ्तगू,
चुप-चुप, करे क्या, मन एकाकी!
गगन करे भी क्या, तन्हा सा!
भींगा या, अधभींगा!
शायद, तरसा है!
उसे तन्हाई में, पलना है!
पहले, सहेज लूँ ये बहाव,
समेट लूँ, मन के सारे बहते भाव!
रोक लूँ, ले चलूँ किनारों पर!
बहने दूँ, ये अधबहा!
भँवर विहीन सा,
फिर बहाव में, बहना है!
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
मर्मस्पर्शी भाव
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय यशवंत माथुर जी।
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 25-12-2020) को "पन्थ अनोखा बतलाया" (चर्चा अंक- 3926) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
आभार आदरणीया।।।।
Deleteबहुत सुन्दर और भावप्रवण
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मयंक महोदय
Deleteचुप चुप करे क्या मन एकाकी,करे क्या गगन भी तन्हा सा, बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया भारती जी।
Deleteगुफ्तगू, बहुत हुई गैरों से,
ReplyDeleteपर गाँठ, गिरह की, खुल न पाई!
है अन्दर, कितना अनकहा!
झील सा, अनबहा!
अब, बहना है,...बहुत सुंदर नायाब पंक्तियाँ..।अनोखी कृति..।
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया जिज्ञासा जी।
Deleteबहते- बहते सागर सम होना है
ReplyDeleteऔ'अपने होने का गम खोना है....
सत्य वचन। बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया । ।।।
Deleteगाँठ गिरह की खुल न पाई। बहुत बढ़िया। बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteप्रतिक्रिया हेतु आभारी हूँ आदरणीय धीरेन्द्र जी। सुस्वागतम्
Deleteवाह! बहुत खूब!!
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय विश्वमोहन जी।
Deleteवाह अति उत्तम अभिनव भाव गंगा।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया कुसुम जी।
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