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Tuesday 24 March 2020

अद्भुत कोरोना

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

कहीं न कहीं, निहित है इक डर,
समाहित है भय,
वर्ना, यूँ न डोलती, मेरी आस्था!
यूँ, न छोड़ते,
हम, मंदिर का रास्ता!
यूँ, न ढूंढते,
तन्हाई में, खुद का पता!

यूँ, ये शहर, न हो जाते वीरान,
ज्यूं, हो श्मशान,
न डरते, आबादियों से इन्सान!
यूँ, न सिमटते,
दूरियों में, हमारे रिश्ते!
यूँ, न करते,
दिल, तोड़ देने की खता!

गली-गली, यूँ न गूंजते ये शंख,
करोड़ों तालियाँ,
असंख्य थालियाँ, बजते न संग!
यूँ, न गुजरते,
कहीं, फासलों से हम!
यूँ, न जागते,
मेरे एहसास, गुमशुदा!

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)

Wednesday 10 October 2018

अब कहाँ वो कहकशाँ

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....

न जाने, गुजरा है अब कहाँ वो कारवां,
धूल है हर तरफ,
फ़िज़ाओ में पिघला सा है धुआँ.....

गुजर चुके है जो, वक्त की तेज धार में,
वो रुके है याद में,
वो शाम-ओ-शहर अब हैं कहाँ.....

कभी जो कहते थे, दुनिया बसाऊंगा मै,
रातें सजाऊंगा मैं,
वो ही सूनी कर गए हैं बस्तियां.....

भिगोती थी कभी, कहकहों की बारिशें,
चुप है वो फुहारें,
है वीरान सा अब वो कहकशाँ......

अब ढ़ूंढता हूँ, फिर वही शाम-ओ-शहर,
वो रास्ते दर-बदर,
मिट चुके है जो कदमों के निशां.....

वो कहकशाँ, वो कदमों के निशां अब है कहाँ....