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Sunday, 3 August 2025

जीवन-शंख

गूंज उठी, कहीं इक शंख,
बिखेर गई, हवाओं में अनगिनत तरंग,
उठा, मृत-मन में,  उन्माद सा,
जागी, तन में, इक सिहरन,
जागे, मृत-प्राण,
इक, नव-जीवन का उन्वान!

जीवन, ज्यूं विहीन पंख,
हर ओर धुआं, विलीन राहें, मन-मलंग,
इक गुंजन का, विस्तार उठा,
पंख लिए, ये प्राण उठा,
इक, नव-विहान,
महकी पवन, चहका प्राण!

मृत सी, लगती वो शंख,
पर सिमेटे, विस्तृत, विविध, रंग-उमंग,
अन्तस्थ, अनंत जीवन-शय,
अन्तः, गाता इक हृदय,
जागा, इक प्राण,
सोए, हर मन का विहान!

कुछ हम गूंजे, शंख सा,
तुम दो, खाली पन्नों को, इक रंग सा,
भर दो, वादी में इक लय,
सुने क्षण में इक सुर,
वाणी में, तान,
नव-आशा का, उत्थान!

Tuesday, 24 March 2020

अद्भुत कोरोना

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

कहीं न कहीं, निहित है इक डर,
समाहित है भय,
वर्ना, यूँ न डोलती, मेरी आस्था!
यूँ, न छोड़ते,
हम, मंदिर का रास्ता!
यूँ, न ढूंढते,
तन्हाई में, खुद का पता!

यूँ, ये शहर, न हो जाते वीरान,
ज्यूं, हो श्मशान,
न डरते, आबादियों से इन्सान!
यूँ, न सिमटते,
दूरियों में, हमारे रिश्ते!
यूँ, न करते,
दिल, तोड़ देने की खता!

गली-गली, यूँ न गूंजते ये शंख,
करोड़ों तालियाँ,
असंख्य थालियाँ, बजते न संग!
यूँ, न गुजरते,
कहीं, फासलों से हम!
यूँ, न जागते,
मेरे एहसास, गुमशुदा!

अद्भुत है, कोरोना!
शायद, जरूरी है, इक डर का होना!
कर-बद्ध,
जुड़े रब से हम,
मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर है सूना,
है ये स्वार्थ, 
या प्रबल है आस्था!
कहो ना!

- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा 
  (सर्वाधिकार सुरक्षित)