Friday 15 January 2016

मशरूफियत

आपकी मशरूफ़ियत देखकर,
बैठ इन्तजार में कुछ लिखने लगा,
मशरूफियत ताउम्र बढ़ती ही गई आपकी,
हद-ए-इन्तजार मैं करता रह गया,
मेरी कलम चलती ही रह गई।

इंतहा मशरूफियत की हुई,
उम्र सारी इंतजार मे ही कट गई,
हमने पूरी की पूरी किताब लिख डाली,
छायावादी कवि और लेखक बन गए हम,
शोहरत कदम चूमती चली गई।

हिरण सा मन

हिरन सा चंचल मन कैद में विवश,
कुटिल शिकारी के जाल फसा मोहवश,
कुलाँचे भर लेने को उत्तेजित टांगें,
चाहे तोड़ देना मोहबंधन के जाल बस।

फेके आखेटक ने मोह के कई वाण,
चंचल मन भूल वश ले फसता जान,
मन में उठती पीड़ा पश्चाताप के तब,
जाल मोहमाया का क्युँ आया न समझ।

छटपटाते प्राण उसके हो आकुल,
मोहपाश क्युँ बंधा सोचे हो व्याकुल,
स्वतंत्र विचरण को आत्मा पुकारती,
धिक्कारती खुद को हिरण ग्लानि वश।

सिमटती परछाँई


कहते हैं परछाईं हमेशा साथ चलती हैं,
लघुता गुरुता के हर क्षण बदलती निरंतर,
पर मुश्किल क्षणों में साया भी साथ नही,
सिमट कर दुबक जाती है पैरों तले,
या फिर पड़ जाती निरंकार शरीर के नीचे।

सुबह की खुशनुमा बेला,
दिखती बेलों से भी लंबी लतराई,
एहसास कराती अपनी गुरूता का,
चिलचिलाती दोपहर ये,
दुबक जाती अपनी ही सायों तले,
तम रात्रि बेला उतर जाते चोला,
एहसास करती अपनी लघुता का पीछे।

रंग बदलती साथ समय के,
नाचती इर्द-गिर्द बेशर्म निःसंकोच,
अपना अस्तित्व बचाने को बदलती निरंतर,
न कोई लक्ष्य न कोई सिद्धांत,
तम रात्रि छोडती जन्म देने वाले शरीर को भी,
छुपा लेती सर कहीं उस कालिमा के नीचे।

Thursday 14 January 2016

तेरी यादों का सफर

धुंधली सी एक झलक पाने को,
अक्सर खो जाता हूँ 
फिर तेरी यादों में....,
छम से तुम आ जाती हो...
अपलक झलक दिखा के,
क्षण में गुम हो जाती हो,
फिर कोहरे में कहीं....

उन चँद पलों मे,
खुद को बिखेर देता हूँ मैं,
अपने आपको....
पूरी तरह समेट भी नही पाता,
तुम वापस चली जाती हो,
अगले ही पल....

जाने किन कोहरे में गुम,
खोए हम गुमसुम,
समय के नस्तर चलते जाते हैं,
दिलों पर नासूर बन...

तुम्हारी एक झलक पाने को,
वापस तुम्हे बुलाने को...
फिर तेरी यादों में खो जाता हूँ....,
अक्सर तुम आ जाती हो यादो में फिर...

विरहन का विरह

पूछे उस विरहन से कोई! 
क्या है विरह? क्या है इन्तजार की पीड़ा?

क्षण भर को उस विरहन का हृदय खिल उठता,
जब अपने प्रिय की आवाज वो सुनती फोन पर,
उसकी सिमटी विरान दुनियाँ मे हरितिमा छा जाती,
बुझी आँखों की पुतलियाँ में चमक सी आ जाती,
सुध-बुध खो देती उसकी बेमतलब सी बातों मे वो,
बस सुनती रह जाती मन मे बसी उस आवाज को ,
फिर कह पाती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसे गिनती वो विरह के इन्तजार की घड़ियाँ?

आकुल हृदय की धड़कनें अगले ही क्षण थम जाती,
जब विरानियों के साए में, वो आवाज गुम हो जाती,
चलता फिर तन्हाईयों का लम्बा पहाड़ सा सिलसिला,
सूख जाते आँसू, बुझ जाती चमक पुतलियों की भी,
काटने दौड़ती मखमली मुलायम चादर की सिलवटें,
इन्तजार के अन्तहीन अनगिनत पल उबा जाते उसे,
सपनों मे भी पूछती बस एक ही बात "कब आओगे"!

पूछे उस विरहन से कोई! 
कैसा है विरह के दर्द का इन्तजार भरा जीवन?

भयावह आँखें

शायद कितने मृत चाह दफन उनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

अजब सी अपूरित आस है इनमें,
जीवन का एक टूटा विश्वास इनमें,
कत्ल होते अरमानों की तस्वीर इनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

हृदय विदारक दर्द की यादें समेटे,
भविष्य की विकराल चिंताएं लपेटे,
आशा के महलों के सब चौखट टूटे,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

घने अँधेरों सा काला कोहरा इसमें,
तुफानी बवंडर सी डर का घेरा इसमें,
खूनी उत्पात सा है रैन बसेरा इसमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

शायद कितने मृत चाह दफन उनमें,
सिहर जाता हूँ उन आँखों को देख!

तुम झूठी दिलाशा मत दो


तुम मुझको झूठी दिलासा मत दो!

जाने तुझमें, तेरी गहरी आँखों में क्या देखता हूँ?
लहरों के आँचल से कुछ चुनता हूँ,
दहकती रेत में फसलें बोता हूँ,
काली रातों में उजली रौशनी ढूंढता हूँ,
तेरी बातों का हर पल आसरा ढूंढ़ता हूँ,
जो बातें असंभव हैं, वो ख्वाब बुनता हूँ,
दिवा स्वप्न सी आभा में खुद को खोता हूँ।

तुम मुझको झूठी दिलासा मत दो!

जाने तुझमें, तेरी मीठी बातों में क्या देखता हूँ?
रेत के महलों में आश्रय ढूंढ़ता हूँ,
मृग मरीचिका से गहरे रंग मांगता हूँ,
तास के घरों मे बूंदो से बचना चाहता हूँ,
निशा रात्रि प्रहर में पक्षी के सुर चाहता हूँ,
अंधेरी राहों मे उज्जवल प्रश्रय चाहता हूँ,
मीठे स्वर के मधुकंपन में खुद को खोता हूँ।

तुम मुझको झूठी दिलासा मत दो!