छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....
बारिश की छलकी सी बूँदों से मन भरमाए,
मंद-मंद चंचल सा वो बदरा मुस्काए!
तन बूंदो से सराबोर, मन हो रहा विभोर,
छलके है मद बादल से, मन जाए किस ओर,
छुन-छुन छंदों संग, हिय ले रहा हिलोर!
थिरक रहे ठहरे से पग, नाच उठा है मोर,
झूम उठी है मतवाली, झूम रहा वो चितचोर,
जित देखूँ तित, बूँदे हँसती है हर ओर!
कल-कल करती बह चली सब धाराएँ,
छंद-छंद गीतों से गुंजित हो चली सब दिशाएँ,
पुकारती है ये वसुन्धरा बाहें सब फैलाए!
ऋतु ये आशा की, फिर आए न आए!
उम्मीदों के बादल, नभ पर फिर छाए न छाए!
चलो क्युँ ना इन बूँदों में हम भीग जाएँ!
छलकी हैं बूँदें, छलकी सावन की ठंढी सी हवाएँ....
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