Wednesday 20 September 2017

प्रीत

मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब....

अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में,
अंकित सदियों से मन के आईने में,
गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी,
आज अचानक फिर से लगी बोलनें।

मुखर हुई वाणी उस बिंब की,
स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी,
घटा मोह की फिर से घिर आई,
मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी।

प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो,
अमरलता सी फैली इस मन पर जो,
सदियों से मन में थी चुप सी वो,
मुखरित हो रही अब मूक सी वाणी वो।

आभा उसकी आज भी वैसी ही,
लटें घनी हो चली उस अमरलता की,
चेहरे पर शिकन बेकरारियाें की,
विस्मित जेहन में ये कैसी हलचल सी।

मोह के बंधन में मैं घिर रहा अब,
पीड़ा शिकन की महसूस हो रही अब,
घन बेकरारी की सावन के अब,
मुखरित हो रही प्रीत की परछाई अब।

2 comments:

  1. आदरणीय पुरुषोत्तम जी -------- प्रीत की अमराइयों में डोलते मन का मधुर गान ------ अतीत के सुनहरे पलों कि मीठी दास्ताँ --- सब अनूठे काव्य शिल्प के साथ शब्दबद्ध हुए है | बहुत बधाई और शुभकामना आपको --------

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