Thursday 7 September 2017

निशा प्रहर में

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

बुझती साँसों सी संकुचित निशा प्रहर में,
मिले थे भाग्य से, तुम उस भटकी सी दिशा प्रहर में,
संजोये थे अरमान कई, हमने उस प्रात प्रहर में,
बीत रही थी निशा, एकाकी मन प्रांगण में...

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

कहनी है बातें कई तुमसे अपने मन की!
संकुचित निशा प्रहर अब रोक रही राहें मन की!
चंद घड़ी ही छूटीं थी फुलझरियाँ इस मन की!
सीमित रजनी कंपन ही थी क्या मेरे भाग्यांकण में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

मेरी अधरों से सुन लेना तुम निशा वाणी!
ये अधर पुट मेरे, शायद कह पाएँ कोई प्रणय कहानी!
कुछ संकोच भरे पल कुछ संकुचित हलचल!
ये पल! मुमकिन भी क्या मेरे इस लघु जीवन में?

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

शिथिल हो रहीं सांसें इस निशा प्रहर में,
कांत हो रहा मन देख तारों को नभ की बाँहों में,
निशा रजनी डूब रही चांदनी की मदिरा में,
प्रिय! मैं भूला-भुला सा हूँ तेरी यादों की गलियों में!

क्यूँ निशा प्रहर तुम आए हो मन के इस प्रांगण में?
रूको! अभी मत जाओ, तुम रुक ही जाओ इस आंगन में।

4 comments:

  1. निशा पहर में अनायास तुम्हारा मन आँगन में आ जाना साथी [
    मन की मुरझाई कलियों का -- हो पुलकित लहरा जाना साथी ;
    इब कलियों को रौंद के आज - लौट न जाना तुम रीते यूँ ;
    बुझते प्राणों में जीवन का -- मधुर आलोक भर जाना साथी !!!!

    अनुरागी मन की अनुपम मनुहार !!!!!!!!!!!!! अनुपम रचना आदरणीय पुरुषोत्तम जी --

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  2. आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया पाकर प्रसन्न हूँ आदरणीया रेणु जी। शुभकामनाएं शुक्रिया ।

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  3. मन को आनन्दित करने वाली रचना है

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