अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!
तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!
अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!
वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!
छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!
न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!
अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
कभी उस तरफ, था ये दिल हमारा,
तन्हा सा रहा, वहाँ वर्षों बेचारा!
तृष्णगि थी, दिल में रही ये कमी थी,
मेरे ही काम की, न वो ज़मीं थी!
अन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
भीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!
वैसे तो रोज ही, कई लोग थे मिलते,
रंगीन थे मगर, ग॔धहीन थे रिश्ते!
छोड़ आया हूँ, कहीं पीछे मैं वो शहर,
मन की गाँव सा, है ना वो शहर!
न कोई जानता, है मुझको अब उधर,
बड़ा ही अजनबी सा, है वो शहर!
अब न खोलता हूँ, मैं दर उधर का,
न जाने वो, रास्ता है किधर का?
- पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-05-2019) को "पत्थर के रसगुल्ले" (चर्चा अंक-3328) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार
Deleteछोड़ आए हम, वो गलियाँ !
ReplyDeleteतू नई मंज़िल की ख़ातिर,
इक नया रस्ता भी खोज !
आभारी हूँ आदरणीय गोपेश जी।
Deleteमन उनकी बेरुखी से नाराज है शायद...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति 👏 👏
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय
Deleteबेहतरीन प्रस्तुति ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय ।
Deleteअन्जाने शक्ल थे, अपना न था कोई,
ReplyDeleteभीड़ में वहीं, ये आत्मा थी खोई!
बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
हृदय तल से आभार।
Deleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteसादर
बहुत-बहुत धन्यवाद ।
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