हैरान हूँ मैं, ये सागर भी है प्यासा!
यूँ ही, भटका-भटका सा!
इन हवाओं को भी,
इक मंद समीर, की है आशा!
ऐ सागर, ऐ समीर!
तू खुद है पूर्ण,
फिर तू, इतना क्यूँ है अधीर?
अथाह हो तुम, लेकिन तुझमें है चंचलता,
अस्थिर, कितना मन तेरा!
कितना चाहे, मन, तेरा क्यूँ इतना चाहे?
अपरिमित सी, तेरी इक्षाएँ,
दूर वही भटकाए!
लालशा ये तेरी, लेकर आई है अपूर्णता,
अतृप्त, कितना मन तेरा!
कैसी चाहत? क्यूँ तुझको, नहीं राहत?
पल-पल, तेरी ये लिप्शाएं,
तुझको छल जाए!
ऐ सागर, ऐ समीर!
ना हो अधीर!
तुझ तक, चल कर,
खुद आई, कितनी ही नदियाँ,
खुद आए, पवन झकोरे,
थे, ये सारे,
इक्षाओं, लिप्साओं से परे,
तुझमें ही खोए!
इतना, हलका-हलका सा,
जीवन हूँ मैं, ले जा जीने की आशा!
क्यूँ है, प्यासा-प्यासा सा?
है, इस जीवन को भी,
इक मंद सलील, की ही आशा!
-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
-पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
वाह
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय जोशी जी। आपकी प्रतिक्रिया अपने आप में पूर्ण है। आभार।
Deleteबहुत खूब पुरुषोत्तम जी।
ReplyDeleteसादर आभार विश्वमोहन जी। आपकी प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteवाह ! आदरनीय पुरुषोत्तम जी | भावों से भरी सुंदर रचना | सागर सा मन और मन सा सागर !!!!! अपार लिप्साएं , लालसाएं !फिर भी एक आशा सबको धीरज देकर रखती है -- सागर को भी मन को भी ! हार्दिक शुभकामनाएं !!!!!!!!
ReplyDeleteआदरणीया रेणु जी, आपकी सारगर्भित व विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया हेतु हृदयतल से आभार। बहुत-बहुत धन्यवाद ।
Deleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय मयंक जी व यथोचित प्रणाम ।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना आदरणीय
ReplyDeleteसादर आभार अनुराधा जी। आपकी प्रतिक्रिया हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद ।
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